बुधवार, 23 दिसंबर 2009

कुछ सपने



नियति प्रधान,
जग जीवन के,
कुछ हिस्से,
कब पूरे हों पाते है ?
कुछ सपने,
अधूरे रह जाते है |

स्वप्न देखा,
अवधपति ने,
ज्येष्ठ सुत राजा बने,
प्रारब्ध के आगे,
मनुज सुख-स्वप्न,
कब जाते गणे ?
सुत चला वनवास,
वियोग,
क्षण प्राण हर जाते है,
कुछ सपने ..... |

स्वप्न देखा,
नवबधु सिया ने,
गृहस्थी सुखकारी बने,
भावी बनी दीवार,
मिली हर राह,
वह घेरी खड़े,
प्रथम मिला बनवास,
हरण,
कुछ ले गया विश्वास,
प्रिय-कर त्याग,
बचा सब कुछ बहा जाते है,
कुछ सपने ..... |

मंगलवार, 29 सितंबर 2009

मातृभाषा


मातृभाषा,
सूचक होती है,
आत्मविश्वास का,
स्व-सम्मान का,
निज-गौरव का,
बिलकुल माँ की तरह,
व्यक्तता की परिधि से, कही ऊपर |

मातृभाषा,
माँ की ही भाँति,
बूढी हों सकती है,
कुरूप भी हों सकती है,
हों सकती है जर्जर,
परन्तु माँ, माँ होती है,
हर हाल, हर भेष में, पूज्य |

और जब, देववाणी,
हों जिसका उत्पत्ति श्रोत,
समृद्ध अतीत की, चमक जिसकी,
सक्षम है, आज भी,
कर सकने में विदीर्ण,
क्षद्म प्रबुद्धता का तमाभिमान |

फिर क्यूकर वह हिंदी,
अपने ही राष्ट्र में,
खोती जा रही,
अपना आत्मगौरव ?,
अपनी पहचान ?,
अपना स्वाभिमान ? |

क्या यह घोतक नहीं,
हमारी विस्मृत समृद्धि का ?,
क्षीर्ण आत्मबल का ?,
अदूरदर्शिता का ?,
अकर्मण्यता का ?,
दासत्व से प्रेरित मानसिकता का ? |

और हम है,
जो न जागने की,
भीष्म-प्रतिज्ञा से ग्रसित,
अपने ही देश में, अपनी ही भाषा का,
कर एक दिवस मुकरर, जोह रहें है बाट,
किसी अनदेखे, अनजाने चमत्कार का |

क्या हम,
समय रहते, जाग पाएंगे ?
अपने स्वर्णिम अतीत के प्रति,
निज में, प्रेम जगा पाएंगे ?
या बैठ गोद में, पर-माता की,
अपनी ही दुर्गति का, जश्न मनाएंगे ?

सोमवार, 21 सितंबर 2009

हार - जीत, सब भ्रम है |



हर पल जीवन दूर सरकता, खूब श्रृष्टि का क्रम है |
क्या खोना, क्या पाना, हार - जीत, सब भ्रम है ||

आपाधापी में जीवन की, नर दूर निकाल जाता है |
अंतकाल, था चला, स्वयं को, खड़ा वही पाता है ||

बन इच्छाओ का दास मनुज, जग में मारा फिरता है |
एक हों पूरी,वह फिर-फिर, सौ इच्छाओ से घिरता है ||

क्षणिक ज्ञान,यश,धन,बल पा, नर व्यर्थ ही, इतराता है |
मिट्टी का तन, नश्वर जीवन, मिटना है, मिट जाता है ||

मृगतृष्णा है जग का सुकून, कब मिलता ?, कब खोता है ?|
माया के, हों वशीभूत मनुज, क्षण हँसता, क्षण रोता है ||

रविवार, 28 जून 2009

मेघ मेरे


तपती धरती, गगन धधकता,
त्राहि दसों दिशायें है,
मेघ मेरे, तुम कहाँ हों अटके,
आश-नयन पथराये हैं |

नेह-चमन, तुम बिन है सूना,
मन-पुष्प, शिथिल, मुरझाये है,
चिर- कालो से, तुमने ही तो,
प्रेम सुधा बरसाए है |
मेघ मेरे, तू कहाँ ...... |

प्रेयसी बैठी इंतजार में,
प्रीतम अभी न आये है,
तुम, पहुचाते थे, प्रीत-निमंत्रण,
पहुच नहीं, जो पाए है |
मेघ मेरे, तू कहाँ ...... |

तुम बिन, जग का काज अधुरा,
ज्यूँ साज बिना, आवाज अधुरा,
कृषकों के, सूखे कंठ कभी से,
तेरी अरदास लगाये है |
मेघ मेरे, तू कहाँ ...... |

पतित भी तेरी राह निहारें,
ठहरे तुम,उनको जो प्यारे,
जग-उपहासों से दग्ध ह्रदय संघ
कब किसने, अश्रु बहाए है |
मेघ मेरे, तू कहाँ ...... |

अब आ जाओ, तूम छा जाओ,
घनघोर पियूष, बरसा जाओ,
जग के तृष्णारत अधरों की,
अब त्वरित प्यास बुझा जाओ |

रविवार, 10 मई 2009

सेवा ब्रत, शूल का पथ है |


सेज नहीं है,
यह फूलो की,
नहीं,
समृद्धि का रथ है,
आग्नि क्षेत्र से,
पड़े गुजरना,
सेवा ब्रत,
शूल का पथ है |

जब नर,
निज हितलाभ द्वंद से,
ऊपर उठ जाता है,
सकल लोक कल्याण हेतु,
उर,
ज्योति जला पाता है |

जब कोई नयन,
सहज ही,
और के,
दर्द बहा जाता है,
जन समुद्र में,
फिर कही,
कोई,
मोती उभर पाता है |

जटिल बड़ी यह राह,
गृहस्थ हों,
हों छद्म वैरागी,
चल पाते है,
इस पथ को जो,
होते है,
वे बडभागी |

रविवार, 26 अप्रैल 2009

चुनाव


जनतंत्र की है, जान ये,
धड़कन है, ये नेतागणों की,
यह शक्ति है, हर नागरिक की,
विधाता, राष्ट्र के जीवन मरण की

यह युद्ध है, मस्तक में उठती आंधियो की,
जो प्रबलतम, वेग से बहती हुई,यह बोलती है,
है हमें, इस राष्ट्र को, उचाईयो तक लेके जाना,
रास्तों के, कंटको को, है कुचल कर,पार पाना

है हमे, मंजिल पे जाकर, जीत का उद्घोष करना,
है हमें, इस राष्ट्र के, गौरव को, वापस छीन लाना
है हमें, अब यह दिखाना, है न हम सोये हुए,
तोड़ना है स्वप्न उनका, मद में जो खोये हुए

चुनना है अब हमें,जो योग्य हो, सक्षम भी हों,
राष्ट्र हित को, हों समर्पित, न्याय के संबल भी हों
हों समग्र प्रयास, घडी अब, आ चली उस कर्म की,
जीते वही,जिन कर सुरक्षित, ध्वज, न्याय की और धर्मं की

रविवार, 5 अप्रैल 2009

आलोचक संतुष्ट नहीं होते |


लाख जतन कर लिज्ये,
सुधा जल में ही भले धर दिज्ये,
नीम,
कड़वाहट नहीं खोते,
आलोचक,
संतुष्ट नहीं होते |

ईश् ने,
जो ग्रीष्म की दी धुप,
आलोचकों के,
मोम तन जलने लगे |

मेघ बरसाए,
जलन कुछ शांत हों,
जलमग्नता से,
त्राहि वे करने लगे |

दी शरद,
हों धुप ना जलमग्नता,
ठिठुरन बढ़ी,
तो ईश् भी अब क्या करें ?

दुर्मति की जड़ जमाई मैल,
मौषम भला कब धोते ?,
आलोचक,
संतुष्ट नहीं होते |

आलोचना,
गर हों श्रृजन हेतु,
तो वो स्वीकार्य हों,

पथ-भ्रष्ट को,
गर राह दिखलाये,
तो वो शिरोधार्य हों,

आलोचना, गर द्वेष दर्शाए,
तो तुम दिल की सुनो,
कुछ लोग,
हरदम ही मिलेगे रोते,
आलोचक,
संतुष्ट नहीं होते |

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

बचपन



चंचल, बोधरहित, मनभावन, सहज, सरल, मन ऊपवन
स्वतः प्रेम जागृत कर जाये, कितना प्यारा बचपन

रंच मात्र का लोभ नहीं, ना राग - द्वेष की बातें
मस्ती का वह जीवन बीता, बाकी केवल यादें

वो क्षण भर,मन का रूठना, अगले पल ही धूम मचाना
जटिल बड़ा लगता अब सबकुछ, वो सामर्थ्य नहीं, पहचाना

वो भूल कोई कर, डर, माँ के आँचल छिप जाना
कितना साहस भर जाता था, वो स्नेह शरण का पाना

बचपन की वो हंसी ठिठोली, ख्वाबो की मुक्त उडानें
आज बंधा सा लगता जीवन, बचपन क्या, अब जानें

काश यदि होता संभव, वक़्त को, उल्टे पैर चलाना
जग जीवन से, राहत कितना, देता बचपन का आना

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

प्रेम ईश्वर है …


ना आदि, ना अंत , इंद्रियो से परे जिसका स्तर है,
प्रेम, बड़ा अनमोल, प्रेम, शाक्षात ईश्वर है

प्रेम आत्मा के धरातल पर उफनता, भावों का असीम सागर है,
प्रेम अभाष्य, अदृश्य, आलोकिक ज्योति, कण-कण में जिसका घर है

प्रेम श्रृष्टि के उत्पत्ति की वजह, श्रृष्टि के पालन का आधार है,
प्रेम भावः को अलग करो गर, देखो, फिर मरघट यह संसार है

प्रेम आत्मा को, आत्मा से, परमात्मा से, जोड़ने का एकमात्र मार्ग है,
प्रेम बहुआयामी, बहुमूल्य है, यह है जहाँ, होता वही पर स्वर्ग है

बुधवार, 14 जनवरी 2009

पूर्णता


श्रृष्टि का हर कण ही होता, निज में है आधा-अधुरा
नेह वश जब आ मिले, हो पूर्णता का ख्वाब पूरा

रात्रि आधी, दिवस आधा, सोचो, है एक दूजे की बाधा
पूर्णता हेतु ही देखो, क्रमबद्धता में निज को बांधा

सम्पूर्णता निज में बने, यह होड़ अब चहु ओर है
क्या इस पनपती सोच का, कोई है धरा, कोई छोर है ?

क्या आज की यह सोच, अब शाश्वत नियम झुठ्लाएगी ?
या सामंजय्स से हीन हो, श्रृष्टि बिखर अब जायेगी ?