सोमवार, 14 मार्च 2011

युक्ति-विजय



मानव
अहम् जनित
मेधा से
चाहे प्रकृति
विजय है,
दैवीय सत्ता
वाम होत जब
क्षण में होत
प्रलय है |

ईश्वर ने है
रचा श्रृष्टि,
जो जीवों का
रखवाला
सर्व समर्थ
वो ईश-तुल्य,
नर
भूल गया
मतवाला |

निज उन्नति
की चरम चाह,
कीमत
जगति का
क्षय है,
करता आवाहन
महाकाल का,
कहता
गीत-विजय है !

सह उन्नति
हीं
निज उन्नति
का
मूल मन्त्र
है भाई,
जिस
साख पे बैठे
उसे काटते
तिस पर
आत्म-बड़ाई !

तुम बढ़ो
सदा उस ओर,
की जगति
बल पाए,
फुले - फले,
स्नेह के मोती
बिखराए |

यूँ
सह उत्थान में
जगत भलाई
तय है,
जियो
और जीनें दो,
युक्ति
विजय है |