रविवार, 20 जनवरी 2008

पूरी हुई है रात अब

पूरी हुई है रात अब, है रौशनी लायी सवेरा
जाती जहा तक दृष्टि है, आदित्य का ही है बसेरा

छट चुके काले अँधेरे, मिट चुकी हर मुश्किले है
खुल गयी मंजिल की राहे, गम क्या अगर कुछ फासले है

जग गयी सोयी तम्मना, नींद अब पूरी हुई है
भाग्य की मिटती लकीरे, फिर से अब बनने लगी है

उत्साह है मन में उठी, परवाह शुलो की नहीं है
जीत होगी ही हमारी, बस कुछ पलों की वेबसी है

फिर मिली खोयी वो ताकत, फिर वही सम्मान पाया
धन्य है वो विश्व नायक, धन्य है नियति की माया

जग गए हम, फिर न सो जाये, सजग हमको है रहना
बीत जाये ना दिवस, फिर अब पड़े तम को न सहना

है अब हमें पुरजोर से, उत्थान की करनी तैयारी
पानी है हर वो चोटी, है जिससे जुडी मंजिल हमारी

अभिलाषा

कुछ पाने की चाह, नया कुछ कर जाने की आशा
सुख-दुःख के इस धुप-छाव में, राह दिखाती अभिलाषा

वो दूर गगन के तारे, लगते है मुझको प्यारे
जी चाहे हाथ बढाकर, मुट्ठी में भर लू सारे

वो कल-कल बहती नदियाँ, निर्मल स्वच्छंद सी धारे
कुछ दूर बहू मैं उन संग, दिल सोचे बैठ किनारे

वो कलरव करते पंक्षी, भरते उन्मुक्त उडाने
क्यों उडू न मैं भी उन सम, ये सरहद क्यू हम माने

है चाह अनेको दिल में, कितनी दू परिभाषाये
हर रोज न जाने कितनी, बनती मिटती आशाये