शनिवार, 26 जुलाई 2008

प्रेम समर्पण खोजता है |

धन की चाहत हो यदि, खुशियों का अर्पण खोजता है
तन की चाहत हो यदि, विषयों भरा मन खोजता है
गर हो चाहत प्रेम की, वह भी मिलेगा इस जहाँ में
बस एक निर्मल और निश्चल, मन का समर्पण खोजता है

प्रेम जीता जा सका कब, रणक्षेत्र में कौशल दिखा कर ?
प्रेम जीता जा सका कब, छल से भरी चौसर बिछाकर ?
गर जीतना है प्रेम को, वह जीत पाओगे जहाँ में
मद से भरा बस एक ह्रदय का, हार जाना खोजता है

प्रेम देखा जा सका कब, मस्जिदों, देवालयों में ?
प्रेम देखा जा सका कब, गिरिजाघरों, शिवालयों में ?
गर देखना है प्रेम को, वह देख पाओगे जहाँ में
बस नेह्प्लवित दो नयन में, डूब जाना खोजता है

प्रेममय गर हो, जहाँ को जो बनाना,
नेह सुमन दिल में, खिलाना खोजता है,
मद, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष की गठरी धरा से,
कही दूर, दरिया में बहाना खोजता है |