शनिवार, 29 नवंबर 2008

अंतरघात

राष्ट्र की अखंडता नित हो रही आहात,
दुश्मन बड़ा शातिर, लगा जाता नए आघात
मुश्किल बड़ा उनको निपटना, दिखती नहीं वो बात
है चोट दे जाती जो, है अपनों का अंतरघात

अक्सर कोई शत्रु, राष्ट्र के आँगन में घुस आता है,
निश्चय ही कही सीमा प्रहरी, ईमान बेच कर खाता है
आँगन में आकर भी वो भला, क्यु पहचाना नहीं जाता है ?
आपना ही कोई रक्षक बनता, वह शरणागत हो जाता है

फिर धीरे धीरे वह घर के, भेदी की टोह लगाता है,
दुर्भाग्य बड़ा, वह अपनों में, दुश्मन की फौज बनता है
फिर समय देखकर, अपने ही अपनों का लहू बहाते है,
दुश्मन, बैठा दूर सुरक्षित, मुस्काते, ईठलाते है

अब मासूमों की चिता-राख से, जमकर होली चलती है,
अफ़सोस इन्ही घटनाक्रम में, अब राजनीत जो पलती है
दुश्मन कायर, हम सबल, नहीं मंशा पूरी होने देंगे,
मीठा लगता यह गान, चलो एक बार और फिर सुन लेंगे

है समय नहीं निज कायरता, का दोष और पर मढ़ने का
है वक़्त बीच आपनो के बनी खाई को भरने का
गर हुए एक, फिर शत्रु की, घृणित हर मुहीम बिफल होगी,
आतंक मिटेगा जन जन से, उन्नति की चाह सफल होगी