सोमवार, 21 सितंबर 2009

हार - जीत, सब भ्रम है |



हर पल जीवन दूर सरकता, खूब श्रृष्टि का क्रम है |
क्या खोना, क्या पाना, हार - जीत, सब भ्रम है ||

आपाधापी में जीवन की, नर दूर निकाल जाता है |
अंतकाल, था चला, स्वयं को, खड़ा वही पाता है ||

बन इच्छाओ का दास मनुज, जग में मारा फिरता है |
एक हों पूरी,वह फिर-फिर, सौ इच्छाओ से घिरता है ||

क्षणिक ज्ञान,यश,धन,बल पा, नर व्यर्थ ही, इतराता है |
मिट्टी का तन, नश्वर जीवन, मिटना है, मिट जाता है ||

मृगतृष्णा है जग का सुकून, कब मिलता ?, कब खोता है ?|
माया के, हों वशीभूत मनुज, क्षण हँसता, क्षण रोता है ||