सोमवार, 28 जनवरी 2008

भ्रष्टाचार



बढ़ रही ईर्ष्या, 
द्वेष बढ़ रहा, 
फ़ैल रहा है अत्याचार,
मानव रुधिर की हर एक अणु, 
बैठ चूका है भ्रष्टाचार |

आदर्शो का साम्राज्य मिट गया, 
न्याय की मूर्ति टूट गई,
यूँ लगता है, तम से हार के, 
रौशनी जग से रूठ गई |

अधिकार की परिभाषा को लेकर, 
होड़ मची है जन-जन में,
छल, अभिमान और स्वर्थपर्ता, 
समा चुकी है तन-तन में |

धन के बल से हाथ मिला कर, 
न्याय है देती गुठने टेक,
बेकसूर चढ़ते शूली पर, 
अपराधी फिरते बन नेक |

भ्रष्टाचार है जलप्रपात, 
ऊपर से नीचे बढ़ता है,
नीचे वालों की क्या बिसात, 
अंकुश यदि ऊपर रहता है |

कर्णधार हो भ्रष्ट यदि, 
जनता को रोके कौन भला ?
एक टीस ह्रदय में उठती है, 
किस गर्त में है ये समाज चला |

1 टिप्पणी:

  1. कर्णधार हो भ्रष्ट यदि, जनता को रोके कौन भला
    .....
    सही प्रश्न उठाया है,
    और बहुत अच्छा लिखा है........

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