शुक्रवार, 11 अप्रैल 2008

आस्था

ना ज्ञान जिसको छू सके, 
ना अर्थ जिसको तौल पाती,
बस प्रेम के घृत से ही जलती, 
आस्था की दिव्य बाती |

जब समस्त ब्रह्मण्ड की है, 
राज सत्ता हार जाती,
तम घना इतना, 
ना ज्योति दूर तक है दीख पाती,
आस्था आदित्य बन तब, 
विकल मन नभ पर है छाती,
फिर कहाँ ठहरे अमावस, 
रश्मि प्रभा ही जगमगाती |

इस चराचर विश्व को, 
है आस्था ही है चलाती,
विज्ञान की छोटी परिधि, 
कब कहाँ इसको है पाती ?
आस्था वो शक्ति है, 
जो बिधि के नियम फिर से सजाती,
आस्था वो तेज है, 
जो हरि को भी संन्मुख खीच लाती |

तब राम बड़े या फिर रहीम, 
यह सोच क्यों उलझन बढाती ?
आस्था है सर्वसत्ता, 
मन मूढ़ क्यों ना मान पाती |

7 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन शब्द-प्रवाह है ....
    पर आस्था और अन्धविश्वास के बीच की रेखा काफी धुधंली है, मित्र .

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  2. बेहतरीन शब्द-प्रवाह है .... पर आस्था और अन्धविश्वास के बीच की रेखा काफी धुधंली है, मित्र .

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  3. आस्था वो शक्ति है, जो बिधि के नियम फिर से सजाती,
    आस्था वो तेज है, जो हरि को भी संन्मुख खीच लाती,
    आस्था में बहुत ताकत हैं,
    बहुत तेज़ हैं......इसे बनाये रखना.

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  4. बहुत सुंदर मित्र |
    बधाई रचना के लिए |

    अवनीश तिवारी

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  5. aapki aastha bahut hi acchi hai aur safal hai........

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  6. अभी तो अनास्था हावी है ,आस्था दरक रही है ।
    अच्छी कविता !

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  7. waah............aapki bhasha bhi bahut achchi hain...

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