जीत- हार
नैन
मूंद लेने से,
ज्योति,
निज का
अस्थित्व
कहाँ खोती है ?
तन के
हारे,
हार न
जब तक,
मन की
हार
नहीं होती है |
सत् की
राह पे
हरिश्चंद्र ने
राज,
देश,
कुटुंब- तन
हारा
पग - पग
हारे,
किन्तु,
परन्तु,
वचन
पूर्ति का लक्ष्य
न वारा |
हर क्षण
होती
दीन दशा
संग
अक्षय कीर्ति
सबल होती है
तन के
हारे,
हार न
जब तक,
मन की
हार
नहीं होती है |
आदर्श
की
रक्षा हेतु,
राम,
अवध छोड़
वन ओर सिधारे
क्या दुर्भाग्य
नहीं था
जो वे
साथ
सिया का
वन में हारे ?
भुज बल
प्रिय का
साथ मिला
जो
राज धर्म
हेतु फिर वारे
हर क्षण
होते
भाग्य - ग्रहण
संग
उनकी जयघोष
प्रवल
होती है |
तन के
हारे,
हार न
जब तक,
मन की
हार
नहीं होती है |
बहुत ही गहन चिंतन वाली पोस्ट...
जवाब देंहटाएंगद्य को पूर्णता देती कविता भी सोचने को विवश करती है.
तारीफ के लिए हर शब्द छोटा है - बेमिशाल प्रस्तुति - आभार.
जवाब देंहटाएंतन के
जवाब देंहटाएंहारे,
हार न
जब तक,
मन की
हार
नहीं होती है |
bahut sateek baat hai .. bahut achchi kavita
बहुत ही सुन्दर शब्द रचना ।
जवाब देंहटाएंbahut khub..sunder ..
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