है द्वेष जिसका अस्त्र है,
वो गहन मावस मे भी मदमस्त है,
चेतना की निंद टूटे क्यूँ भला ?
वो हकों की लूट मे हीं व्यस्त है।
वो निशा दृष्टा,
आभ दिखला के क्या ?
वो दिवस मे,
जन्म से हीं सूर है।
झकझोरने का श्रम वृथा हीं जाएगा,
वो ठूँठ है,
फलहीन है,
मगरूर है।
कब लोलुपित सिंह को,
कोई मेमना समझा सका ?
कब बिना संग्राम के,
कोई कौरवों को झुका सका ?
जिन्दगी संघर्ष है,
संघर्ष कर,
विनती, विनय को त्याग,
अब तू अस्त्र धर।
हार या के जीत में,
तुम एक हो,
युद्ध या के प्रीत में,
तुम नेक हो।
साक्षी है इतिहास,
समर अपरिहार्य है,
जब न्याय हीं हो दांव पर,
स्वीकार्य है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें