शनिवार, 26 जुलाई 2008

प्रेम समर्पण खोजता है |

धन की चाहत हो यदि, खुशियों का अर्पण खोजता है
तन की चाहत हो यदि, विषयों भरा मन खोजता है
गर हो चाहत प्रेम की, वह भी मिलेगा इस जहाँ में
बस एक निर्मल और निश्चल, मन का समर्पण खोजता है

प्रेम जीता जा सका कब, रणक्षेत्र में कौशल दिखा कर ?
प्रेम जीता जा सका कब, छल से भरी चौसर बिछाकर ?
गर जीतना है प्रेम को, वह जीत पाओगे जहाँ में
मद से भरा बस एक ह्रदय का, हार जाना खोजता है

प्रेम देखा जा सका कब, मस्जिदों, देवालयों में ?
प्रेम देखा जा सका कब, गिरिजाघरों, शिवालयों में ?
गर देखना है प्रेम को, वह देख पाओगे जहाँ में
बस नेह्प्लवित दो नयन में, डूब जाना खोजता है

प्रेममय गर हो, जहाँ को जो बनाना,
नेह सुमन दिल में, खिलाना खोजता है,
मद, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष की गठरी धरा से,
कही दूर, दरिया में बहाना खोजता है |

सोमवार, 14 जुलाई 2008

जो जैसा बोता है …..

ईश्वर कब सुख-दुःख, अपने बच्चो में बाटता है
जो जैसा बोता है, बस वैसा ही काटता है

देखो प्रकृति खेल कैसे खेलती है
वीज जब तक कंटको का, बन जाये ना वृक्ष
पालती है, पोसती, सब झेलती है

बोने वाले का अहम् भी फूलता है
वो लगा आसन तले उस वृक्ष के
नैन मूंदे मदहिडोले झूलता है

सोचता है अब लगेंगे फल रसीले
कंटको में कब लगेंगे फल रसीले ?
हाथ आती है तो बस, झाडे कटीले

अब वह करुणक्रंदन से नभ को भेदता है
प्रश्नशर से, ईस ऊर को छेदता है
दर्द यैसा क्यों दिया, कुछ बोल अब तो
तू कहा बैठा है , गुत्थी खोल अब तो

ईस बोले, हू न दोषी मैं किसी का
कुछ बो सके, यह वक़्त आता है सभी का
इस धरा पर कर्म का ही चक्र चलता
जैसा जो बोता, ठीक वैसा ही है फलता

आज तुझको जो मिला, तेरे कर्मो का फल है
कांटे थे बोए, फिर चुभन से क्यों विकल है
कर्म पीछा छोड़ती है कब किसी का
वक़्त करता न्याय एक दिन है सभी का