श्रृष्टि का हर कण ही होता, निज में है आधा-अधुरा
नेह वश जब आ मिले, हो पूर्णता का ख्वाब पूरा
रात्रि आधी, दिवस आधा, सोचो, है एक दूजे की बाधा
पूर्णता हेतु ही देखो, क्रमबद्धता में निज को बांधा
सम्पूर्णता निज में बने, यह होड़ अब चहु ओर है
क्या इस पनपती सोच का, कोई है धरा, कोई छोर है ?
क्या आज की यह सोच, अब शाश्वत नियम झुठ्लाएगी ?
या सामंजय्स से हीन हो, श्रृष्टि बिखर अब जायेगी ?