सोमवार, 28 जनवरी 2008

भ्रष्टाचार



बढ़ रही ईर्ष्या, 
द्वेष बढ़ रहा, 
फ़ैल रहा है अत्याचार,
मानव रुधिर की हर एक अणु, 
बैठ चूका है भ्रष्टाचार |

आदर्शो का साम्राज्य मिट गया, 
न्याय की मूर्ति टूट गई,
यूँ लगता है, तम से हार के, 
रौशनी जग से रूठ गई |

अधिकार की परिभाषा को लेकर, 
होड़ मची है जन-जन में,
छल, अभिमान और स्वर्थपर्ता, 
समा चुकी है तन-तन में |

धन के बल से हाथ मिला कर, 
न्याय है देती गुठने टेक,
बेकसूर चढ़ते शूली पर, 
अपराधी फिरते बन नेक |

भ्रष्टाचार है जलप्रपात, 
ऊपर से नीचे बढ़ता है,
नीचे वालों की क्या बिसात, 
अंकुश यदि ऊपर रहता है |

कर्णधार हो भ्रष्ट यदि, 
जनता को रोके कौन भला ?
एक टीस ह्रदय में उठती है, 
किस गर्त में है ये समाज चला |

रविवार, 20 जनवरी 2008

पूरी हुई है रात अब |



पूरी हुई है रात अब, 
है रौशनी लायी सवेरा,
जाती जहा तक दृष्टि है, 
आदित्य का ही है बसेरा |

छट चुके काले अँधेरे, 
मिट चुकी हर मुश्किले हैं,
खुल गयी मंजिल की राहें 
गम क्या अगर कुछ फासले हैं |

जग गयी सोयी तम्मना, 
नींद अब पूरी हुई है,
भाग्य की मिटती लकीरें, 
फिर से अब बनने लगी है |

उत्साह है मन में उठा, 
परवाह शुलो की नहीं है,
जीत होगी हीं हमारी, 
बस कुछ पलों की वेबसी है |

फिर मिली खोयी वो ताकत, 
फिर वही सम्मान पाया
धन्य है वो विश्व नायक, 
धन्य है नियति की माया |

जग गए हम, 
फिर न सो जाएँ, 
सजग हमको है रहना,
बीत जाये ना दिवस, 
फिर अब पड़े तम को न सहना |

है अब हमें पुरजोर से, 
उत्थान की करनी तैयारी,
पानी है हर वो चोटी, 
है जिससे जुडी मंजिल हमारी |

अभिलाषा



कुछ पाने की चाह, 
नया कुछ कर जाने की आशा.
सुख-दुःख के इस धुप-छाँव में, 
राह दिखाती अभिलाषा |

वो दूर गगन के तारे, 
लगते है मुझको प्यारे,
जी चाहे हाथ बढाकर, 
मुट्ठी में भर लू सारे |

वो कल-कल बहती नदियाँ, 
निर्मल स्वच्छंद सी धारें,
कुछ दूर बहू मैं उन संग, 
दिल सोचे बैठ किनारे |

वो कलरव करते पंक्षी, 
भरते उन्मुक्त उडाने,
क्यों उड़ूँ न मैं भी उन सम, 
यह सरहद क्यूँ हम माने |

है चाह अनेकों दिल में, 
कितनी दू परिभाषाएं,
हर रोज न जाने कितनी, 
बनती मिटती आशाएं |

गुरुवार, 17 जनवरी 2008

जीवन



जैसे यह तन 
हम जीवों का, 
पंचतत्व का मिश्रण है,
वैसे हीं सुख-दुःख का मिलना, 
हीं मानव का जीवन है |

सुख में खोना, 
दुःख में रोना, 
ये विवेक का काम नहीं,
असफल होकर थम जाना, 
जीवन का ये तो विराम नहीं |

सोना अग्नि में तपकर हीं, 
कुन्दन के रूप को पाता है
काँटों पर चलते-चलते हीं, 
एक सुखमय मंजिल आता है |

काँटों की चुभन से, 
विचलित हो, 
जो अपनी राह बदलते है
वे सदैव मंजिल की 
उलटी ही राहों पर चलते है |

जो असहनीय 
कष्टों को सहकर, 
भी आगे को बढते है
वे आज नहीं तो कल ही सही, 
हर दुर्गम चोटी चढ़ते है |

जिसने इस मर्म को 
जान लिया, 
जीवन रहस्य पहचान लिया,
जिंदादिली ही जीवन है, 
इस गूढ़ सत्य को मान लिया |

मंगलवार, 15 जनवरी 2008

जिंदगी यूँ ही ना बीते ..



जिंदगी
यूँ ही
ना बीते,
यूँ ना
पूरी हो
कहानी,
आजकल की
उलझनों में,
बीत जाये ना
जवानी |

चाह
और
उत्साह के,
जो नभ हैं
रौशन सितारे,
टूट कर
कहीं
धुल में,
मिल जाएँ ना
सारे के सारे |

मन की
गति से
भी अधिक,
है तेज चलती
वक़्त धारा,
आज है जो
हाथ तेरे,
कल ना होगा
वह तुम्हारा |

कल की
आशा में
है क्यों,
तू आज को
बेजा बिताता,
आज की तू आज
कर ले,
कल की
जाने वो विधाता |

श्रेष्ट
तुझको तन मिला,
कुछ श्रेष्टतम
तुझको है पाना,
आया है तू,
तुझको है जाना,
कर जो जाने
ये जमाना |

तेरी जिंदगी
सार्थक यूँ बीते,
कुछ बने
ऐसी कहानी,
राह तेरी
चल पड़े,
लाखो करोडों
जिंदगानी |

सोमवार, 14 जनवरी 2008

"आजादी"



आजादी मिल गई है लेकिन, 
मिट न सकी वो काली छाया
तन आजाद है, हो गया माना, 
मन आजाद तो हो नहीं पाया |

अंग्रेजो के कोप से पीड़ित, 
जनता ने जब शोर मचाया,
गली-गली में, घर-घर में, 
जब लोगों ने लहू तिलक लगाया |

नर शव से जब जमीं पट गयी, 
पर वलिदान न कम हो पाया,
तब जाकर, भारत का गौरव, 
तीन रंग का धवज फहराया |

सदियों से पिंजरे का बंदी, 
पंक्षी ने तब पर फैलाया,
उड़ जाने की नील गगन में, 
सोचा, पर वो उड़ ना पाया |

क्योंकि वह था, भूख से पीड़ित, 
दलित, कहाँ वह जाता ?
किस-किस के आगे, 
वह अपनी, करुण कथा दुहराता ?

पेट की ज्वाला, कष्ट की राहें, 
देख के वह घबराया,
मन का कादर, पिंजरे की, 
सुविधा को भूल न पाया |

उसने सोचा, पिंजरे में था, 
मगर पास में रोटी थी,
बंधकर रहना पड़ता था, 
पर कष्ट भी छोटी मोटी थी |

एक मत्स्य हो दुषित अगर, 
तालाव दुषित हो जाता है,
गलत सोच भी कभी-कभी, 
खासा महंगा पड़ जाता है |

आज भी हम, उस गलत सोच को, 
दूर नहीं कर पाए हैं,
हिले नहीं, हैं खड़े वहीं, 
पिंजरे की ताक लगाये हैं |

हमें सोच के अन्धकार में, 
दीप ज्योति का लाना है,
तन की मुक्ति की भाति ही, 
मन को भी मुक्त बनाना है |

हमें मार्ग से भटक चुके, 
राही को राह पे लाना है,
आजादी का अर्थ सही, 
क्या है, उनको बतलाना है |

रविवार, 13 जनवरी 2008

विषमता



एक रोग से जग है पीड़ित, 
हाहाकार है मचा हुआ,
महासमर सा लगता प्रतिपल, 
मन है बोझ से दबा हुआ ।

कुछ लोगों के हाथों में, 
जग का साम्राज्य है समा गया,
बाकि लोगों की रोटी भी, 
जो छीन हाथ से चबा गया ।

माना होना धनवान सभी का, 
यह तो कभी संभव ही नहीं,
पर भूखे को भोजन ना मिले, 
यह भी तो कोई इन्साफ नहीं।

है कर्म सभी करते, 
पर मिलता, सबको एक समान नहीं,
मानो अथवा फिर ना मानो, 
पर जग का है तो विधान यही।

कुछ तो फुलों को चूमते है, 
कुछ काँटों पर ही झूमते है,
कुछ दुःख में अश्रु बहाते है, 
कुछ घी के दीये जलाते है।

किसी को महलों की कमी नहीं, 
किसी को रहने को जमीं नहीं,
कुछ खुलकर मौज उडाते है, 
कुछ भूखे ही मर जाते है।

जन-जन में है आक्रोश भरा, 
यह कैसा विषम समाज बना,
दिखती है नहीं कोई राह सही, 
यह रोग है जिसकी दवा नहीं।

दोस्ती - एक अमूल्य ऊपहार |



विश्वास
के कोमल
धागों से
है बनता,
रिश्तो का संसार
ज्ञान नहीं,
धन नहीं,
प्रेम है
जीवन का
आधार |

जो प्रेम,
स्वार्थ की
सीमाओं से परे,
करे,
वो दोस्त,
खाली जीवन को,
स्वर्णिम 
लम्हों से करे,
हरे भरे,
वो दोस्त |

वो दोस्त,
समझ हो
जिसे,
दोस्त के
हर धड़कन की,
वो दोस्त,
समझ हो
जिसे,
इस अटूट
बन्धन की |

यह तन
नश्वर,
जीवन नश्वर,
है नश्वर
यह संसार,
जो मिटे नहीं,
रहे अमर सदा,
वो है,
दोस्ती – एक अमूल्य ऊपहार |