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आज
दीप का पर्व,
ज्योति,
हरे
अंतर-तम को |
दुःख,
दर्द,
क्लेश
मिटे जग से,
सुख - शांति,
भरे
अंतरतम को |
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नैन
मूंद लेने से,
ज्योति,
निज का
अस्थित्व
कहाँ खोती है ?
तन के
हारे,
हार न
जब तक,
मन की
हार
नहीं होती है |
सत् की
राह पे
हरिश्चंद्र ने
राज,
देश,
कुटुंब- तन
हारा
पग - पग
हारे,
किन्तु,
परन्तु,
वचन
पूर्ति का लक्ष्य
न वारा |
हर क्षण
होती
दीन दशा
संग
अक्षय कीर्ति
सबल होती है
तन के
हारे,
हार न
जब तक,
मन की
हार
नहीं होती है |
आदर्श
की
रक्षा हेतु,
राम,
अवध छोड़
वन ओर सिधारे
क्या दुर्भाग्य
नहीं था
जो वे
साथ
सिया का
वन में हारे ?
भुज बल
प्रिय का
साथ मिला
जो
राज धर्म
हेतु फिर वारे
हर क्षण
होते
भाग्य - ग्रहण
संग
उनकी जयघोष
प्रवल
होती है |
तन के
हारे,
हार न
जब तक,
मन की
हार
नहीं होती है |