मंगलवार, 29 सितंबर 2009
मातृभाषा
मातृभाषा,
सूचक होती है,
आत्मविश्वास का,
स्व-सम्मान का,
निज-गौरव का,
बिलकुल माँ की तरह,
व्यक्तता की परिधि से, कही ऊपर |
मातृभाषा,
माँ की ही भाँति,
बूढी हों सकती है,
कुरूप भी हों सकती है,
हों सकती है जर्जर,
परन्तु माँ, माँ होती है,
हर हाल, हर भेष में, पूज्य |
और जब, देववाणी,
हों जिसका उत्पत्ति श्रोत,
समृद्ध अतीत की, चमक जिसकी,
सक्षम है, आज भी,
कर सकने में विदीर्ण,
क्षद्म प्रबुद्धता का तमाभिमान |
फिर क्यूकर वह हिंदी,
अपने ही राष्ट्र में,
खोती जा रही,
अपना आत्मगौरव ?,
अपनी पहचान ?,
अपना स्वाभिमान ? |
क्या यह घोतक नहीं,
हमारी विस्मृत समृद्धि का ?,
क्षीर्ण आत्मबल का ?,
अदूरदर्शिता का ?,
अकर्मण्यता का ?,
दासत्व से प्रेरित मानसिकता का ? |
और हम है,
जो न जागने की,
भीष्म-प्रतिज्ञा से ग्रसित,
अपने ही देश में, अपनी ही भाषा का,
कर एक दिवस मुकरर, जोह रहें है बाट,
किसी अनदेखे, अनजाने चमत्कार का |
क्या हम,
समय रहते, जाग पाएंगे ?
अपने स्वर्णिम अतीत के प्रति,
निज में, प्रेम जगा पाएंगे ?
या बैठ गोद में, पर-माता की,
अपनी ही दुर्गति का, जश्न मनाएंगे ?
सोमवार, 21 सितंबर 2009
हार - जीत, सब भ्रम है |
हर पल जीवन दूर सरकता, खूब श्रृष्टि का क्रम है |
क्या खोना, क्या पाना, हार - जीत, सब भ्रम है ||
आपाधापी में जीवन की, नर दूर निकाल जाता है |
अंतकाल, था चला, स्वयं को, खड़ा वही पाता है ||
बन इच्छाओ का दास मनुज, जग में मारा फिरता है |
एक हों पूरी,वह फिर-फिर, सौ इच्छाओ से घिरता है ||
क्षणिक ज्ञान,यश,धन,बल पा, नर व्यर्थ ही, इतराता है |
मिट्टी का तन, नश्वर जीवन, मिटना है, मिट जाता है ||
मृगतृष्णा है जग का सुकून, कब मिलता ?, कब खोता है ?|
माया के, हों वशीभूत मनुज, क्षण हँसता, क्षण रोता है ||
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