शनिवार, 27 दिसंबर 2008

समय बलवान होता है ..



तनिक सामर्थ्य पा, अक्सर बली अभिमान होता है,
मनुज, ठोकर लगे ना, दर्द से अनजान होता है
समय-निधि रेत पर, कितने घरौंधे रोज बन मिटते,
न जीता जा सका बन्धु, समय बलवान होता है


युगों पहले धारा पर वक़्त एक, दसशीश था आया,
गगन भी था प्रकंपित, अजेय जो सामर्थ्य था पाया
दशा विपरीत जब आई, न क्षण भर भी वो टिक पाया,
बुरे कर्मो का तो भरना, बुरा परिणाम होता है,
न जीता जा सका ........


वक़्त ने ली नयी करवट, अहम् का बीज फिर फूटा,
सुत प्रेमवद्ध एक भूप ने, निज भ्रात हित लूटा
शत-पुत्र, सारे मर मिटे, नहीं विष बेल फल पाया,
अतिक्रमण अधिकार का हो जब, यही अंजाम होता है,
न जीता जा सका ............


काल पश्चिम का फिर आया, व्योम सा जग पे जो छाया,
न क्षण-भर को मिली राहत, दिवाकर भी था घबराया
अहम् के श्रृंग से टूटा यू, धारा पर निज सिमट आया,
यहाँ तो हर उदय का, निश्चित कभी अवसान होता है,
न जीता जा सका ............

शनिवार, 29 नवंबर 2008

अंतरघात

राष्ट्र की अखंडता,
नित हो रही आहात,
दुश्मन बड़ा शातिर, लगा जाता नए आघात
मुश्किल बड़ा उनको निपटना, दिखती नहीं वो बात
है चोट दे जाती जो, है अपनों का अंतरघात

अक्सर कोई शत्रु, राष्ट्र के आँगन में घुस आता है,
निश्चय ही कही सीमा प्रहरी, ईमान बेच कर खाता है
आँगन में आकर भी वो भला, क्यु पहचाना नहीं जाता है ?
आपना ही कोई रक्षक बनता, वह शरणागत हो जाता है

फिर धीरे धीरे वह घर के, भेदी की टोह लगाता है,
दुर्भाग्य बड़ा, वह अपनों में, दुश्मन की फौज बनता है
फिर समय देखकर, अपने ही अपनों का लहू बहाते है,
दुश्मन, बैठा दूर सुरक्षित, मुस्काते, ईठलाते है

अब मासूमों की चिता-राख से, जमकर होली चलती है,
अफ़सोस इन्ही घटनाक्रम में, अब राजनीत जो पलती है
दुश्मन कायर, हम सबल, नहीं मंशा पूरी होने देंगे,
मीठा लगता यह गान, चलो एक बार और फिर सुन लेंगे

है समय नहीं निज कायरता, का दोष और पर मढ़ने का
है वक़्त बीच आपनो के बनी खाई को भरने का
गर हुए एक, फिर शत्रु की, घृणित हर मुहीम बिफल होगी,
आतंक मिटेगा जन जन से, उन्नति की चाह सफल होगी

मंगलवार, 2 सितंबर 2008

गो रक्षण

थकते न हम जिस हिंद का
करते हुए गुणगान है,
कहते हमारी सभ्यता, 
जग श्रेष्ट है, 
महान है,
पर पालती निज रक्त जो, 
रखते न 
उसका मान है,
हर चौक पर है गौ बलि, 
किस राष्ट्र का अभिमान है ?

हम जगे,
हमने दिखाया विश्व को 
रौशन जहाँ,
पालनेवाली यशोदा, 
कब माँ कही जाती कहाँ ?
गौ को भी हमने था दिया, 
जननी का दर्जा ही यहाँ
अफ़सोस अब है खो गए, 
जज़्बात वो जाने कहाँ |

आलम ये है,
अब राष्ट्र का, 
छूटा न कोई प्रान्त है,
जहाँ गौ बलि चढ़ती नहीं, 
धिक्कार है हम शांत है,
बध के लिए खूटे बंधी, 
वो मूक हमको निहारती,
पीडा के अश्रु झरे नयन, 
मृत्यु निकट वह ताड़ती |

है सोचती,
पाला जिसे अमृत पिला,
वे आज मुझ सम विष-निवाले धर चले,
जीवन के एक - एक मोड पर जिनको संभाला,
हाय, आज मुझको यम् हवाले कर चले,
सर्वश्व नेयोछाबर किया, जी भर लुटाई सम्पदा,
क्या था नहीं अधिकार मेरा, निर्भय जियू जग में सदा ?

उपकार उनका है बहुत इस देह पर,
हक़ है बड़ा उनका हमारे नेह पर
अधिकार उनको यह मिले, अब यत्न मिलकर हम करे
यह धर्मं की निरपेक्षता का ढोंग,
भला, वो निरीह क्यु सहते रहे

शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

यह है परीक्षा की घडी |

घोर छाया हो अँधेरा, 
चुभती हो 
शूलों सी राहें,
रूह भी 
जब थक चुकी हो, 
मुश्किलें फैलाती बाहें |

कुछ नहीं आता 
समझ में, 
सुन ये पथिक 
तुम ध्यान देना,
यह है परीक्षा की घडी, 
कुछ धैर्य से 
तुम काम लेना ||

शनिवार, 26 जुलाई 2008

प्रेम समर्पण खोजता है |

धन की चाहत 
हो यदि, 
खुशियों का 
अर्पण खोजता है,
तन की चाहत 
हो यदि, 
विषयों भरा 
मन खोजता है,
गर हो चाहत 
प्रेम की, 
वह भी मिलेगा 
इस जहाँ में,
बस एक निर्मल 
और निश्चल, 
मन का 
समर्पण खोजता है |

प्रेम जीता जा 
सका कब, 
रणक्षेत्र में 
कौशल दिखा कर ?
प्रेम जीता जा 
सका कब, 
छल से भरी 
चौसर बिछाकर ?
गर जीतना है 
प्रेम को, 
वह जीत पाओगे 
जहाँ में
मद से भरा 
बस एक ह्रदय का, 
हार जाना खोजता है |

प्रेम देखा जा सका कब, 
मस्जिदों, देवालयों में ?
प्रेम देखा जा सका कब, 
गिरिजाघरों, शिवालयों में ?
गर देखना है 
प्रेम को, 
वह देख पाओगे 
जहाँ में
बस नेह्प्लवित 
दो नयन में, 
डूब जाना खोजता है |

प्रेममय गर हो, 
जहां को जो बनाना,
नेह सुमन दिल में, 
खिलाना खोजता है,
मद, लोभ, ईर्ष्या, 
द्वेष की गठरी धरा से,
कही दूर, 
दरिया में बहाना खोजता है |

सोमवार, 14 जुलाई 2008

जो जैसा बोता है …..

ईश्वर कब सुख-दुःख, 
अपने बच्चों में बाटता है,
जो जैसा बोता है, 
वैसा ही काटता है |

देखो प्रकृति 
खेल कैसे खेलती है,
बीज जब तक कंटको का, 
बन जाये ना वृक्ष,
पालती है, 
पोसती, 
सब झेलती है |

बोने वाले का 
अहम् भी फूलता है,
वो लगा आसन, 
तले उस वृक्ष के
नैन मूंदे मद-हिडोले 
झूलता है |

सोचता है 
अब लगेंगे फल रसीले,
कंटको में कब लगेंगे 
फल रसीले ?
हाथ आता है तो बस, 
झाड़ें कटीले |

अब वह करुण क्रंदन से 
नभ को भेदता है,
प्रश्न-शर से, 
ईश ऊर को छेदता है,
दर्द ऐसा क्यों दिया, 
कुछ बोल अब तो,
तू कहा बैठा है, 
गुत्थी खोल अब तो |

ईश बोले, 
हूँ न दोषी मैं किसी का,
कुछ बो सके, 
यह वक़्त आता है सभी का,
इस धरा पर 
कर्म का ही चक्र चलता
जैसा जो बोता, 
ठीक वैसा ही है फलता |

आज तुझको जो मिला, 
तेरे कर्मो का फल है,
कांटे थे बोए, 
फिर चुभन से क्यों विकल है,
कर्म पीछा छोड़ता है 
कब किसी का ?
वक़्त करता न्याय, 
एक दिन है सभी का |

मंगलवार, 20 मई 2008

जीवन असार है |

मरणासन्न,
किसी व्यक्ति की,
आँखों से देखो,
और सोचो,
जीवन,
ये कैसा व्यापार है ?

ध्वनि,
कई प्रतिध्वनियो में,
गूंजेगी तुम्हारे कानो में
जीवन असार है,
जीवन
असार है |

ये स्वप्नों के पीछे,
दौड़ती जिंदगी,
सुख-दुःख के धुप-छाव से,
जूझती जिंदगी,
बचपन,
जवानी,
बुढापे में हरपल,
कुछ खोजती जिंदगी,
यूँ ही रीत जाती है,
उमरिया बीत जाती है |

अब जाने की है तैयारी,
टूटी भ्रम की झूठी खुमारी,
क्या खोया, क्या पाया,
आकलन बड़ा पेचीदा है |

यू तो है
एश्वर्य कदमो में,
तुने युग को जीता है,
पर क्या जा पायेगा साथ तेरे ?
ये संसार मिथ्या है,
ये एश्वर्य झूठा है |

अब जाना,
जो जा सकता था,
उसे तो तुने संजोया ही नहीं,
अपने में खोया रहा,
दुखियों के दर्द पर,
तू कभी रोया ही नहीं |

तू हरपल लोभ,
ईर्ष्या,
अंहकार के बीज,
जीवन के गर्भ में बोता रहा,
अपनी हर जीत पर,
खुश होता रहा,
पर हर पल,
खुद को खोता रहा |

काश,
जो ये आँखे,
पहले मिली होती,
तो आज,
तन्हाई में भी,
एक अलग ख़ुशी होती |

हरपल भीड़ में,
गुजारी थी जिंदगी मैंने,
आज इस तन्हा सफर में,
कुछ तो रौशनी होती |

रविवार, 20 अप्रैल 2008

विश्वास न खोने देना |



हो थकान भरी 
जीवन की डगर, 
तुम आस न सोने देना
बरसेंगे ख़ुशी के मेघ, 
ये तुम विश्वास न खोने देना |

जितना पतझड़ है सत्य, 
वसंत की 
उतनी ही सच्चाई है,
दो दिवस के 
मध्य में हीं हरदम, 
कोई रात घनी आयी है
कब दिल की अगन, 
रोके है पवन, 
तुम चाह ना बुझने देना,
है ताकत तो 
झुकता है गगन, 
तुम बाह ना झुकने देना |

सतयुग हो या हो कलयुग, 
है सत्य दिखा परेशां,
सहमा, विचला राहों में, 
थी सफर न उसकी आसां,
पर जीता है वो हरदम, 
तुम हार न होने देना,
मंजिल है तुम्हारी निश्चित, 
बस राह न खोने देना |

मन हार न माने जब तक, 
है आस विजय की तब तक,
जब प्रेम प्रबल हो जाता, 
कब रोके कौन विधाता ?

सौ आस जो टूटे दिल के, 
फिर स्वप्न संजोने देना,
हाँ ख्वाब है होते पूरे, 
ये विश्वास न खोने देना |

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2008

आस्था

ना ज्ञान जिसको छू सके, 
ना अर्थ जिसको तौल पाती,
बस प्रेम के घृत से ही जलती, 
आस्था की दिव्य बाती |

जब समस्त ब्रह्मण्ड की है, 
राज सत्ता हार जाती,
तम घना इतना, 
ना ज्योति दूर तक है दीख पाती,
आस्था आदित्य बन तब, 
विकल मन नभ पर है छाती,
फिर कहाँ ठहरे अमावस, 
रश्मि प्रभा ही जगमगाती |

इस चराचर विश्व को, 
है आस्था ही है चलाती,
विज्ञान की छोटी परिधि, 
कब कहाँ इसको है पाती ?
आस्था वो शक्ति है, 
जो बिधि के नियम फिर से सजाती,
आस्था वो तेज है, 
जो हरि को भी संन्मुख खीच लाती |

तब राम बड़े या फिर रहीम, 
यह सोच क्यों उलझन बढाती ?
आस्था है सर्वसत्ता, 
मन मूढ़ क्यों ना मान पाती |

रविवार, 2 मार्च 2008

क्षेत्रीयता



क्यों बिखरती जा रही है रोज कड़ियाँ, 
एकता, विश्वास और आत्त्मियता की ?
हैं कौन वो, 
जो बो रहे हैं शूल, 
राष्ट्र के सीने में, क्षेत्रीयता की ?

जनतंत्र का यह गर्व भारत, 
सदियों से बैरी रहा 
जिसका जमाना
हैं शान से कहते रहे हम, 
कुछ बात है हममे, 
जो मिटता है नहीं ये आशियाना,
क्या बात है हममें, 
सिवाए एकता, विश्वास 
और अत्त्मियता के ?
क्या बात है हममें, 
सिवाए संस्कृति, सिद्धांत 
और राष्ट्रीयता के ?

है विश्वास अपना 
की अतिथि देव होते है, 
है विश्वास अपना, 
की परहित धर्मं होता है,
है विश्वास आपना 
की एकता में शक्ति होती है, 
है विश्वास आपना की 
सर्वधर्म सम्मान ही सच्ची भक्ति होती है |

यह विश्वास ही तो है, 
जिसके सामने 
दिग्गजों के भी 
मनोबल टूट जाते है,
यह शक्ति ही तो है, 
जिसके सामने 
शत्रु हार जाते है, 
दुश्मनों के पसीने छुट जाते है |

फिर कौन हैं वो, 
जो सदियों से संचित 
इस शक्ति को, 
नष्ट करने पर तुले है ?
फिर कौन है वो 
जो भटक गए है, 
मंजिल की राह भूले है ?

क्या हम चुपचाप बैठे देखते रहेंगे, 
उनकी गुस्ताखियों को
या बढेंगे कुछ हाथ, 
उनको रोकने को, 
समझाने को, 
राह दिखने को |

कहीं देर ना हो जाए 
की राही भटक जाएं, 
रास्ता दिखाना शेष ना रहे,
कहीं देर ना हो जाए
की मंजिल खो जाए, 
फिर शायद इस राष्ट्र को 
बचाना शेष ना रहे |

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2008

आधुनिकता की अंधी दौड़ |

ये आधुनिकता की अंधी दौड़, 
न जाने कहाँ ले जायेगी ?
सोचता हूँ, 
तो डर जाता हूँ,
ये संस्कृति, सिद्धांत और आदर्शो की विरासत, 
अब कब तक टिक पायेगी ?
ये आधुनिकता की अंधी दौड़, 
न जाने कहाँ ले जायेगी ?

अब ग्रहस्थी के दोनों स्तंभ, 
सुख के संसाधन जुटाते हैं,
चार हाथों से अर्थ बटोर, 
वे फुले ना समाते हैं,
कोई शक नहीं जो ये पीढ़ी, 
जरुरत से कुछ जयादा जुटा लाएगी,
पर क्या भावना, लगाव और शांति की अनमोल निधि, 
अक्षुण रख पायेगी ?
ये आधुनिकता की अंधी दौड़, 
न जाने कहाँ ले जायेगी ?

वो नारी जिसे करूणा, दया और प्रेम की 
प्रतिमूर्ति कहा जाता था,
जिनके त्याग और मातृत्व की ताकत के आगे, 
नर खुद को झुका पाता था,
आधुनिकता के इस दौर में उसने, 
खुद को किस हद तक नीचे ला डाला है,
फिर भी दंभ देखो, 
कहती है खुद को किस खूबी से संभाला है,
ये झूठे दिखावे और बनावटी प्रतिस्प्रधा ही होड़ में,
क्या कुछ ना कर जाएँगी, 
और तनिक ना शर्मायेंगी,
पर जो प्रकृति है उनका और कर्तव्य भी, 
उसे करते खुद को पिछडा पाएँगी | 

ये आधुनिकता की अंधी दौड़, 
न जाने कहा ले जायेगी ?
सोचता हूँ , तो कॉप जाता हूँ,
ये मातृत्व, त्याग और प्रेम की मिसाल, 
क्या अब खोजने से भी मिल पायेगी ?

सोमवार, 28 जनवरी 2008

भ्रष्टाचार



बढ़ रही ईर्ष्या, 
द्वेष बढ़ रहा, 
फ़ैल रहा है अत्याचार,
मानव रुधिर की हर एक अणु, 
बैठ चूका है भ्रष्टाचार |

आदर्शो का साम्राज्य मिट गया, 
न्याय की मूर्ति टूट गई,
यूँ लगता है, तम से हार के, 
रौशनी जग से रूठ गई |

अधिकार की परिभाषा को लेकर, 
होड़ मची है जन-जन में,
छल, अभिमान और स्वर्थपर्ता, 
समा चुकी है तन-तन में |

धन के बल से हाथ मिला कर, 
न्याय है देती गुठने टेक,
बेकसूर चढ़ते शूली पर, 
अपराधी फिरते बन नेक |

भ्रष्टाचार है जलप्रपात, 
ऊपर से नीचे बढ़ता है,
नीचे वालों की क्या बिसात, 
अंकुश यदि ऊपर रहता है |

कर्णधार हो भ्रष्ट यदि, 
जनता को रोके कौन भला ?
एक टीस ह्रदय में उठती है, 
किस गर्त में है ये समाज चला |

रविवार, 20 जनवरी 2008

पूरी हुई है रात अब |



पूरी हुई है रात अब, 
है रौशनी लायी सवेरा,
जाती जहा तक दृष्टि है, 
आदित्य का ही है बसेरा |

छट चुके काले अँधेरे, 
मिट चुकी हर मुश्किले हैं,
खुल गयी मंजिल की राहें 
गम क्या अगर कुछ फासले हैं |

जग गयी सोयी तम्मना, 
नींद अब पूरी हुई है,
भाग्य की मिटती लकीरें, 
फिर से अब बनने लगी है |

उत्साह है मन में उठा, 
परवाह शुलो की नहीं है,
जीत होगी हीं हमारी, 
बस कुछ पलों की वेबसी है |

फिर मिली खोयी वो ताकत, 
फिर वही सम्मान पाया
धन्य है वो विश्व नायक, 
धन्य है नियति की माया |

जग गए हम, 
फिर न सो जाएँ, 
सजग हमको है रहना,
बीत जाये ना दिवस, 
फिर अब पड़े तम को न सहना |

है अब हमें पुरजोर से, 
उत्थान की करनी तैयारी,
पानी है हर वो चोटी, 
है जिससे जुडी मंजिल हमारी |

अभिलाषा



कुछ पाने की चाह, 
नया कुछ कर जाने की आशा.
सुख-दुःख के इस धुप-छाँव में, 
राह दिखाती अभिलाषा |

वो दूर गगन के तारे, 
लगते है मुझको प्यारे,
जी चाहे हाथ बढाकर, 
मुट्ठी में भर लू सारे |

वो कल-कल बहती नदियाँ, 
निर्मल स्वच्छंद सी धारें,
कुछ दूर बहू मैं उन संग, 
दिल सोचे बैठ किनारे |

वो कलरव करते पंक्षी, 
भरते उन्मुक्त उडाने,
क्यों उड़ूँ न मैं भी उन सम, 
यह सरहद क्यूँ हम माने |

है चाह अनेकों दिल में, 
कितनी दू परिभाषाएं,
हर रोज न जाने कितनी, 
बनती मिटती आशाएं |

गुरुवार, 17 जनवरी 2008

जीवन



जैसे यह तन 
हम जीवों का, 
पंचतत्व का मिश्रण है,
वैसे हीं सुख-दुःख का मिलना, 
हीं मानव का जीवन है |

सुख में खोना, 
दुःख में रोना, 
ये विवेक का काम नहीं,
असफल होकर थम जाना, 
जीवन का ये तो विराम नहीं |

सोना अग्नि में तपकर हीं, 
कुन्दन के रूप को पाता है
काँटों पर चलते-चलते हीं, 
एक सुखमय मंजिल आता है |

काँटों की चुभन से, 
विचलित हो, 
जो अपनी राह बदलते है
वे सदैव मंजिल की 
उलटी ही राहों पर चलते है |

जो असहनीय 
कष्टों को सहकर, 
भी आगे को बढते है
वे आज नहीं तो कल ही सही, 
हर दुर्गम चोटी चढ़ते है |

जिसने इस मर्म को 
जान लिया, 
जीवन रहस्य पहचान लिया,
जिंदादिली ही जीवन है, 
इस गूढ़ सत्य को मान लिया |

मंगलवार, 15 जनवरी 2008

जिंदगी यूँ ही ना बीते ..



जिंदगी
यूँ ही
ना बीते,
यूँ ना
पूरी हो
कहानी,
आजकल की
उलझनों में,
बीत जाये ना
जवानी |

चाह
और
उत्साह के,
जो नभ हैं
रौशन सितारे,
टूट कर
कहीं
धुल में,
मिल जाएँ ना
सारे के सारे |

मन की
गति से
भी अधिक,
है तेज चलती
वक़्त धारा,
आज है जो
हाथ तेरे,
कल ना होगा
वह तुम्हारा |

कल की
आशा में
है क्यों,
तू आज को
बेजा बिताता,
आज की तू आज
कर ले,
कल की
जाने वो विधाता |

श्रेष्ट
तुझको तन मिला,
कुछ श्रेष्टतम
तुझको है पाना,
आया है तू,
तुझको है जाना,
कर जो जाने
ये जमाना |

तेरी जिंदगी
सार्थक यूँ बीते,
कुछ बने
ऐसी कहानी,
राह तेरी
चल पड़े,
लाखो करोडों
जिंदगानी |

सोमवार, 14 जनवरी 2008

"आजादी"



आजादी मिल गई है लेकिन, 
मिट न सकी वो काली छाया
तन आजाद है, हो गया माना, 
मन आजाद तो हो नहीं पाया |

अंग्रेजो के कोप से पीड़ित, 
जनता ने जब शोर मचाया,
गली-गली में, घर-घर में, 
जब लोगों ने लहू तिलक लगाया |

नर शव से जब जमीं पट गयी, 
पर वलिदान न कम हो पाया,
तब जाकर, भारत का गौरव, 
तीन रंग का धवज फहराया |

सदियों से पिंजरे का बंदी, 
पंक्षी ने तब पर फैलाया,
उड़ जाने की नील गगन में, 
सोचा, पर वो उड़ ना पाया |

क्योंकि वह था, भूख से पीड़ित, 
दलित, कहाँ वह जाता ?
किस-किस के आगे, 
वह अपनी, करुण कथा दुहराता ?

पेट की ज्वाला, कष्ट की राहें, 
देख के वह घबराया,
मन का कादर, पिंजरे की, 
सुविधा को भूल न पाया |

उसने सोचा, पिंजरे में था, 
मगर पास में रोटी थी,
बंधकर रहना पड़ता था, 
पर कष्ट भी छोटी मोटी थी |

एक मत्स्य हो दुषित अगर, 
तालाव दुषित हो जाता है,
गलत सोच भी कभी-कभी, 
खासा महंगा पड़ जाता है |

आज भी हम, उस गलत सोच को, 
दूर नहीं कर पाए हैं,
हिले नहीं, हैं खड़े वहीं, 
पिंजरे की ताक लगाये हैं |

हमें सोच के अन्धकार में, 
दीप ज्योति का लाना है,
तन की मुक्ति की भाति ही, 
मन को भी मुक्त बनाना है |

हमें मार्ग से भटक चुके, 
राही को राह पे लाना है,
आजादी का अर्थ सही, 
क्या है, उनको बतलाना है |

रविवार, 13 जनवरी 2008

विषमता



एक रोग से जग है पीड़ित, 
हाहाकार है मचा हुआ,
महासमर सा लगता प्रतिपल, 
मन है बोझ से दबा हुआ ।

कुछ लोगों के हाथों में, 
जग का साम्राज्य है समा गया,
बाकि लोगों की रोटी भी, 
जो छीन हाथ से चबा गया ।

माना होना धनवान सभी का, 
यह तो कभी संभव ही नहीं,
पर भूखे को भोजन ना मिले, 
यह भी तो कोई इन्साफ नहीं।

है कर्म सभी करते, 
पर मिलता, सबको एक समान नहीं,
मानो अथवा फिर ना मानो, 
पर जग का है तो विधान यही।

कुछ तो फुलों को चूमते है, 
कुछ काँटों पर ही झूमते है,
कुछ दुःख में अश्रु बहाते है, 
कुछ घी के दीये जलाते है।

किसी को महलों की कमी नहीं, 
किसी को रहने को जमीं नहीं,
कुछ खुलकर मौज उडाते है, 
कुछ भूखे ही मर जाते है।

जन-जन में है आक्रोश भरा, 
यह कैसा विषम समाज बना,
दिखती है नहीं कोई राह सही, 
यह रोग है जिसकी दवा नहीं।

दोस्ती - एक अमूल्य ऊपहार |



विश्वास
के कोमल
धागों से
है बनता,
रिश्तो का संसार
ज्ञान नहीं,
धन नहीं,
प्रेम है
जीवन का
आधार |

जो प्रेम,
स्वार्थ की
सीमाओं से परे,
करे,
वो दोस्त,
खाली जीवन को,
स्वर्णिम 
लम्हों से करे,
हरे भरे,
वो दोस्त |

वो दोस्त,
समझ हो
जिसे,
दोस्त के
हर धड़कन की,
वो दोस्त,
समझ हो
जिसे,
इस अटूट
बन्धन की |

यह तन
नश्वर,
जीवन नश्वर,
है नश्वर
यह संसार,
जो मिटे नहीं,
रहे अमर सदा,
वो है,
दोस्ती – एक अमूल्य ऊपहार |