
लाख जतन कर लिज्ये,
सुधा जल में ही भले धर दिज्ये,
नीम,
कड़वाहट नहीं खोते,
आलोचक
संतुष्ट नहीं होते |
ईश् ने,
जो ग्रीष्म की दी धूप,
आलोचकों के
मोम तन जलने लगे |
मेघ बरसाए,
जलन कुछ शांत हों,
जलमग्नता से,
त्राहि वे करने लगे |
दी शरद,
हों धुप ना जलमग्नता,
ठिठुरन बढ़ी,
तो ईश् भी अब क्या करें ?
दुर्मति की जड़ जमाई मैल,
मौसम भला कब धोते ?,
आलोचक
संतुष्ट नहीं होते |
आलोचना,
गर हों श्रृजन हेतु,
तो वो स्वीकार्य हों,
पथ-भ्रष्ट को,
गर राह दिखलाये,
तो वो शिरोधार्य हों,
आलोचना गर द्वेष दर्शाए,
तो तुम दिल की सुनो,
कुछ लोग
हरदम ही मिलेगे रोते,
आलोचक
संतुष्ट नहीं होते |