खींच-तान,
रच रहें द्वन्द,
विचलित है
प्राण |
बाहर भागूँ,
अन्दर जागूँ,
है विकट प्रश्न,
मुश्किल निदान |
कभी मूल्य को
रखकर कोने में,
सुख पाऊँ
जग का होने में,
घुटते अन्तर से
व्यथित हुआ,
कभी समय बिताऊ
रोने में |
सोचूं,
बीते से बंधा हुआ
मै आज कहाँ
उठ पाउँगा ?
गर तजा यदि,
उठ गया भी जो,
अन्तर को
रौंद न जाऊंगा ?
कभी,
उन्मुक्त जीविका
सीखा रही,
पश्चिम की
हवा सुहाती है,
कभी सद्चरित्र,
सुगठित रहन,
पुरखों की
मन को भाती है |
पश्चिम-पूरब की
खीच तान,
रच रहें द्वन्द,
विचलित है
प्राण |
बाहर भागूँ,
अन्दर जागूँ,
है विकट प्रश्न,
मुश्किल निदान |
गर तजा यदि,
उठ गया भी जो,
अन्तर को
रौंद न जाऊंगा ?
कभी,
उन्मुक्त जीविका
सीखा रही,
पश्चिम की
हवा सुहाती है,
कभी सद्चरित्र,
सुगठित रहन,
पुरखों की
मन को भाती है |
पश्चिम-पूरब की
खीच तान,
रच रहें द्वन्द,
विचलित है
प्राण |
बाहर भागूँ,
अन्दर जागूँ,
है विकट प्रश्न,
मुश्किल निदान |