शनिवार, 26 नवंबर 2011

पश्चिम या पूरब ?



पश्चिम-पूरब की
खींच-तान,
रच रहें द्वन्द,
विचलित है
प्राण |

बाहर भागूँ,
अन्दर जागूँ,
है विकट प्रश्न,
मुश्किल निदान |

कभी मूल्य को
रखकर कोने में,
सुख पाऊँ
जग का होने में,
घुटते अन्तर से
व्यथित हुआ,
कभी समय बिताऊ
रोने में |

सोचूं,
बीते से बंधा हुआ
मै आज कहाँ 
उठ पाउँगा ?
गर तजा यदि,
उठ गया भी जो,
अन्तर को
रौंद न जाऊंगा ?

कभी,
उन्मुक्त जीविका
सीखा रही,
पश्चिम की
हवा सुहाती है,
कभी सद्चरित्र,
सुगठित रहन,
पुरखों की
मन को भाती है |

पश्चिम-पूरब की
खीच तान,
रच रहें द्वन्द,
विचलित है
प्राण |

बाहर भागूँ,
अन्दर जागूँ,
है विकट प्रश्न,
मुश्किल निदान |

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

नदिया प्रीत निभाना जाने |



प्रेम तपिश से
बने तरल,
बढ़ चले,
कठिन
या राह सरल,
थके नहीं,
ना थमे कहीं,
वो सागर से
मिल जाना जाने,
नदिया,
प्रीत निभाना जाने |

वो पली
भले हों,
गिरि शिखर,
झुक चले हमेशा
प्रेम डगर,
सर्वस्व समर्पण हेतु
वो निज का,
उन्नत शीश,
झुकाना जाने,
नदिया,
प्रीत निभाना जाने |

हो
बहे गाँव
या कोई शहर,
दूषित तत्व
लय आठों पहर,
अविरल बहकर,
निर्मल रहकर,
वो अपना धर्म
बचाना जाने,
नदिया,
प्रीत निभाना जाने |

थलचर,
नभचर
या हो जलचर,
कोई भेद न
करती वो उनपर,
वह नेह की
व्यापक सोच लिए,
हर शय को
तृप्ति दिलाना जाने,
नदिया,
प्रीत निभाना जाने |

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

रिश्तों के रखाव में : गुरु के प्रति समर्पण



रिश्तों के
रखाव में
सहजता का
आभाव क्यु ?

तत्क्षण
दे दी थी
गुरु दक्षिणा
अंगूठे की
एकलव्य ने
द्रोण को |

न सोचा,
बस
रख दिया
अपना
जीवन संचय
कदमो
में उनके,
जिनसे
न कुछ
जाना था,
जो गुरु थे
नहीं,
जिन्हें
बस गुरु
माना था |

पर आज इन
रिश्तों में
श्रद्धा,
समर्पण का
प्रतिक्षण होता
गिराव क्यों ?

रिश्तों के
रखाव में
सहजता का
आभाव क्यु ?

(नायेदा जी की काव्य श्रंखला से प्रभावित)

सोमवार, 14 मार्च 2011

युक्ति-विजय



मानव
अहम् जनित
मेधा से,
चाहे प्रकृति
विजय है,
दैवीय सत्ता
वाम होत जब,
क्षण में होत
प्रलय है |

ईश्वर ने है
रचा श्रृष्टि,
जो जीवों का
रखवाला,
सर्व समर्थ
वो ईश-तुल्य,
नर
भूल गया
मतवाला |

निज उन्नति
की चरम चाह,
कीमत
जगति का
क्षय है,
करता आह्वाहन
महाकाल का,
कहता
गीत-विजय है |

सह उन्नति हीं
निज उन्नति का
मूल मन्त्र
है भाई,
जिस
साख पे बैठे
उसे काटते
तिस पर
आत्म-बड़ाई |

तुम बढ़ो
सदा उस ओर,
की जगति
बल पाए,
फुले-फले,
स्नेह के मोती
बिखराए |

यूँ
सह उत्थान में
जगत भलाई
तय है,
जियो
और जीनें दो,
युक्ति विजय है |

सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

शांति अधिकारी



ज्यू
अनेक नदियों
का जल,
उस अचल प्रतिष्ठावान
जलधि,
परिपूर्ण जलाजल
से मिलकर,
नहीं करते
उसको तनिक विचल,
त्यू ही
सर्वकामना
जगत की
स्वतः मिले,
न पर
जो बुद्धि भटकती,
है वही
परम शांति
अधिकारी,
न वो
हों जो
कामना पुजारी |

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भावानुवाद गीता श्लोक संख्या ७०

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं-
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्‌ ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

व्यक्त-अव्यक्त



हे पार्थ,
जीव
अव्यक्त है
जन्मपूर्व,
वह
व्यक्त
जन्म से
होता है
और
पुनः अव्यक्त
निधनौपरांत,
वह नित्य चक्र
में होता है,
हों
शोकाकुल,
उस
हेतु जीव के,
औचित्य
कहाँ
फिर
होता है ?

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अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥२- २८॥

(श्रीमद्भगवद्गीता)

शनिवार, 22 जनवरी 2011

माँ की गोद



माँ
के सानिध्य
से दूर शिशु को,
ज्यूं
उनकी गोद
सताती है,
त्यूं
मातृभूमि
की याद
हृदय को
बींध - बींध
तड़पाती है |

ज्यूं
घोर शिशिर में
दीप्त दिवाकर
की
किरणे
हर्षाती है,
त्यूं
दूर बसे को
जन्मभूमि की
यादें बहुत
सुहाती है |

हम
उठें भले ऊँचे
की अम्बर
छू जाएँ
पर जड़ें
ही हैं
जो हमको
पोषण पहुचाएँ ,
जो पेड़ जड़ों
से छिन्न - भिन्न
हों जाते है,
वो शुष्क - ह्रदय
कहीं दूर पड़े
पछताते हैं |

कुछ
वृक्ष तो अपनी
नियति मान
खो जाते है,
पर कुछ अपने
अंतर को जागृत
पाते है,
जो
जाग गए,
वो
देर से ही,
मुड जाते हैं
और मुड़ते ही
वे स्वतः
ही फिर
जुड़ (जड़ों से )
जाते है |

ये
तरु, मूल
का मिलन,
तो कुछ
फिर यूँ
दोनों को
भाता है,
ज्यूं
मरणसेज
पर पड़ा कोई,
उठ
अपनों
से मिल
जाता है |

बुधवार, 19 जनवरी 2011

अशेष



पा दिशा
पवन से,
गंध
पुष्प का
यहाँ - वहाँ
करता
प्रवेश,

मगर
सतोगुण
सज्जन का,
स्वतः
बढे,
चहु ओर
अशेष |

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

तुम ईश्वर थे |



जब से
मैंने
तुमको जाना,
मन ही
मन में
अपना माना,
तन-मन
अर्पण
कर जाते हम,
तुमने
कब मुझको
पहचाना ?
तुम
ईश्वर थे,
क्यु तोड़
दिया,
तुमने मेरा
विश्वास अहो ?,
मैं दंश
झूठ के
सह लूँगी,
क्यु कर बैठे
आभिमान
कहो ?

तुम
टूट चुके थे,
तिरस्कार से,
तब
बाँह तुम्हारी
थामीं थी,
थी
शिकन न
उभरी
माथे पर,
तुममें,
दैव-जनित
कुछ खामी
थी |
क्यु छला
मेरे
अंतर्मन को,
दे दारुण
दुख
परिणाम अहो ?,
निर्मल
मन अर्पण
भूल गए,
क्यु कर
बैठे,
अपमान कहो ?

है याद,
व्यथित थे
तुम
भारी,
थे
चक्रबात के
घेरे में,
उर ज्योत
जलाई
थी मैंने,
थे
डूबे
कूप अँधेरे
में
क्यु
दिया मुझे,
फिर जीने को,
तम - जीवन
का
उपहार अहो ?
क्या यही
नेह का
प्रतिफल है ?
था यही
तुम्हे
स्वीकार कहो ?

तुम
अरमानो को
तोड़ चले,
मुझको
मजधार में
छोड़ चले
क्या खूब
निभाया
साथ मेरा,
यू गैरों सा
मुख
मोड़ चले,
हू
आज
व्यथित
मन से
भारी,
मैं
आज
स्वयं
से ही
हारी|