बढ़ रही ईर्ष्या, द्वेष बढ़ रहा, फ़ैल रहा है अत्याचार
मानव रुधिर की हर एक अणु, बैठ चूका है भ्रष्टाचार
आदर्शो का साम्राज्य मिट गया, न्याय की मूर्ति टूट गई
यू लगता है, तम से हर के, रोशनी जग से रूठ गई
अधिकार की परिभाषा को लेकर, होड़ मची है जन - जन में
छल अभिमान और स्वर्थपर्ता, समा चुकी है तन - तन में
धन के बल से हाथ मिला कर, न्याय है देती गुठने टेक
बेकसूर चढ़ते शूली पर, अपराधी फिरते बन नेक
भ्रष्टाचार है जलप्रपात, ऊपर से नीचे बढ़ता है
नीचे वालों की क्या बिशात, अंकुश यदि ऊपर रहता है
कर्णधार हो भ्रष्ट यदि, जनता को रोके कौन भला
एक टीस ह्रदय में उठती है, किस गर्त में है ये समाज चला
सोमवार, 28 जनवरी 2008
स्वाभिमान
हीन भाव से ग्रसित जीव, उत्थान नहीं कर पाता है
हर लक्ष्य अस्संभव दिखता है, जब स्वाभिमान मर जाता है
स्वाभिमान है तेज पुंज, यदि कठिनाई है अन्धकार
यह औषधि है हर रोगों की, गहरा जितना भी हो विकार
यह शक्ति है जो है पकड़ती, छुटते धीरज के तार
यह दृष्टि है जो है दिखाती, नित नए मंजिल के द्वार
यह आन है, यह शान है, यह ज्ञान है, भगवान है
कुछ कर गुजरने की ज्योत है, हर चोटी का सोपान है
हां सर उठाकर जिंदगी, जीना ही स्वाभिमान है
गर मांग हो प्याले जहर, पीना ही स्वाभिमान है
यह है तो इस ब्रम्हाण्ड में, नर की अलग पहचान है
जो यह नहीं, नर - नर नहीं, पशु है, मृतक समान है
हर लक्ष्य अस्संभव दिखता है, जब स्वाभिमान मर जाता है
स्वाभिमान है तेज पुंज, यदि कठिनाई है अन्धकार
यह औषधि है हर रोगों की, गहरा जितना भी हो विकार
यह शक्ति है जो है पकड़ती, छुटते धीरज के तार
यह दृष्टि है जो है दिखाती, नित नए मंजिल के द्वार
यह आन है, यह शान है, यह ज्ञान है, भगवान है
कुछ कर गुजरने की ज्योत है, हर चोटी का सोपान है
हां सर उठाकर जिंदगी, जीना ही स्वाभिमान है
गर मांग हो प्याले जहर, पीना ही स्वाभिमान है
यह है तो इस ब्रम्हाण्ड में, नर की अलग पहचान है
जो यह नहीं, नर - नर नहीं, पशु है, मृतक समान है
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