रविवार, 13 जनवरी 2008

विषमता

एक रोग से जग है पीड़ित, हाहाकार है मचा हुआ,
महासमर सा लगता प्रतिपल, मन है बोझ से दबा हुआ ।

कुछ लोगों के हाथो में, जग का साम्राज्य है समा गया,
बाकि लोगों की रोटी भी, जो छीन हाथ से चबा गया ।

माना होना धनवान सभी का, यह तो कभी संभव ही नहीं,
पर भूखे को भोजन ना मिले, यह भी तो कोई इन्साफ नहीं।

है कर्म सभी करते, पर मिलता सबको एक समान नहीं,
मानो अथवा फिर ना मानो, पर जग का है तो विधान यही।

कुछ तो फुलों को चूमते है, कुछ काँटों पर ही झूमते है,
कुछ दुःख में अश्क बहाते है, कुछ घी के दीये जलाते है।

किसी को महलों की कमी नहीं, किसी को रहने को जमी नहीं,
कुछ खुलकर मौज उडाते है, कुछ भूखे ही मर जाते है।

जन - जन में है आक्रोश भरा, ये कैसा विषम समाज बना,
दिखती है नहीं कोई राह सही, यह रोग है जिसकी दवा नहीं।

1 टिप्पणी:

  1. कुछ लोगों के हाथो में, जग का साम्राज्य है समा गया
    बाकि लोगों की रोटी भी, जो छीन हाथ से चबा गया
    .......
    सामाजिक विषमता का वर्णन बहुत सधे ढंग से किया है,
    मुझे हमेशा उम्मीद रहती है कि कोई आवाज़ व्यर्थ नहीं जायेगी.....

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