हाहाकार है मचा हुआ,
महासमर सा लगता प्रतिपल,
महासमर सा लगता प्रतिपल,
मन है बोझ से दबा हुआ ।
कुछ लोगों के हाथों में,
कुछ लोगों के हाथों में,
जग का साम्राज्य है समा गया,
बाकि लोगों की रोटी भी,
बाकि लोगों की रोटी भी,
जो छीन हाथ से चबा गया ।
माना होना धनवान सभी का,
माना होना धनवान सभी का,
यह तो कभी संभव ही नहीं,
पर भूखे को भोजन ना मिले,
पर भूखे को भोजन ना मिले,
यह भी तो कोई इन्साफ नहीं।
है कर्म सभी करते,
है कर्म सभी करते,
पर मिलता, सबको एक समान नहीं,
मानो अथवा फिर ना मानो,
मानो अथवा फिर ना मानो,
पर जग का है तो विधान यही।
कुछ तो फुलों को चूमते है,
कुछ तो फुलों को चूमते है,
कुछ काँटों पर ही झूमते है,
कुछ दुःख में अश्रु बहाते है,
कुछ दुःख में अश्रु बहाते है,
कुछ घी के दीये जलाते है।
किसी को महलों की कमी नहीं,
किसी को महलों की कमी नहीं,
किसी को रहने को जमीं नहीं,
कुछ खुलकर मौज उडाते है,
कुछ खुलकर मौज उडाते है,
कुछ भूखे ही मर जाते है।
जन-जन में है आक्रोश भरा,
जन-जन में है आक्रोश भरा,
यह कैसा विषम समाज बना,
दिखती है नहीं कोई राह सही,
दिखती है नहीं कोई राह सही,
यह रोग है जिसकी दवा नहीं।
कुछ लोगों के हाथो में, जग का साम्राज्य है समा गया
जवाब देंहटाएंबाकि लोगों की रोटी भी, जो छीन हाथ से चबा गया
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सामाजिक विषमता का वर्णन बहुत सधे ढंग से किया है,
मुझे हमेशा उम्मीद रहती है कि कोई आवाज़ व्यर्थ नहीं जायेगी.....