शनिवार, 22 जनवरी 2011

माँ की गोद



माँ
के सानिध्य
से दूर शिशु को,
ज्यूं
उनकी गोद
सताती है,
त्यूं
मातृभूमि
की याद
हृदय को
बींध - बींध
तड़पाती है |

ज्यूं
घोर शिशिर में
दीप्त दिवाकर
की
किरणे
हर्षाती है,
त्यूं
दूर बसे को
जन्मभूमि की
यादें बहुत
सुहाती है |

हम
उठें भले ऊँचे
की अम्बर
छू जाएँ
पर जड़ें
ही हैं
जो हमको
पोषण पहुचाएँ ,
जो पेड़ जड़ों
से छिन्न - भिन्न
हों जाते है,
वो शुष्क - ह्रदय
कहीं दूर पड़े
पछताते हैं |

कुछ
वृक्ष तो अपनी
नियति मान
खो जाते है,
पर कुछ अपने
अंतर को जागृत
पाते है,
जो
जाग गए,
वो
देर से ही,
मुड जाते हैं
और मुड़ते ही
वे स्वतः
ही फिर
जुड़ (जड़ों से )
जाते है |

ये
तरु, मूल
का मिलन,
तो कुछ
फिर यूँ
दोनों को
भाता है,
ज्यूं
मरणसेज
पर पड़ा कोई,
उठ
अपनों
से मिल
जाता है |

बुधवार, 19 जनवरी 2011

अशेष



पा दिशा
पवन से,
गंध
पुष्प का
यहाँ - वहाँ
करता
प्रवेश,

मगर
सतोगुण
सज्जन का,
स्वतः
बढे,
चहु ओर
अशेष |

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

तुम ईश्वर थे |



जब से
मैंने
तुमको जाना,
मन ही
मन में
अपना माना,
तन-मन
अर्पण
कर जाते हम,
तुमने
कब मुझको
पहचाना ?
तुम
ईश्वर थे,
क्यु तोड़
दिया,
तुमने मेरा
विश्वास अहो ?,
मैं दंश
झूठ के
सह लूँगी,
क्यु कर बैठे
आभिमान
कहो ?

तुम
टूट चुके थे,
तिरस्कार से,
तब
बाँह तुम्हारी
थामीं थी,
थी
शिकन न
उभरी
माथे पर,
तुममें,
दैव-जनित
कुछ खामी
थी |
क्यु छला
मेरे
अंतर्मन को,
दे दारुण
दुख
परिणाम अहो ?,
निर्मल
मन अर्पण
भूल गए,
क्यु कर
बैठे,
अपमान कहो ?

है याद,
व्यथित थे
तुम
भारी,
थे
चक्रबात के
घेरे में,
उर ज्योत
जलाई
थी मैंने,
थे
डूबे
कूप अँधेरे
में
क्यु
दिया मुझे,
फिर जीने को,
तम - जीवन
का
उपहार अहो ?
क्या यही
नेह का
प्रतिफल है ?
था यही
तुम्हे
स्वीकार कहो ?

तुम
अरमानो को
तोड़ चले,
मुझको
मजधार में
छोड़ चले
क्या खूब
निभाया
साथ मेरा,
यू गैरों सा
मुख
मोड़ चले,
हू
आज
व्यथित
मन से
भारी,
मैं
आज
स्वयं
से ही
हारी|

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

दीपावली



आज
दीप का पर्व,
ज्योति,
हरे
अंतर-तम को |

दुःख,
दर्द,
क्लेश
मिटे जग से,
सुख - शांति,
भरे
अंतरतम को |

सोमवार, 1 नवंबर 2010

जीत- हार



नैन
मूंद लेने से,
ज्योति,
निज का
अस्थित्व
कहाँ खोती है ?

तन के
हारे,
हार न
जब तक,
मन की
हार
नहीं होती है |

सत् की
राह पे
हरिश्चंद्र ने
राज,
देश,
कुटुंब- तन
हारा

पग - पग
हारे,
किन्तु,
परन्तु,
वचन
पूर्ति का लक्ष्य
न वारा |

हर क्षण
होती
दीन दशा
संग
अक्षय कीर्ति
सबल होती है

तन के
हारे,
हार न
जब तक,
मन की
हार
नहीं होती है |

आदर्श
की
रक्षा हेतु,
राम,
अवध छोड़
वन ओर सिधारे

क्या दुर्भाग्य
नहीं था
जो वे
साथ
सिया का
वन में हारे ?

भुज बल
प्रिय का
साथ मिला
जो
राज धर्म
हेतु फिर वारे

हर क्षण
होते
भाग्य - ग्रहण
संग
उनकी जयघोष
प्रवल
होती है |

तन के
हारे,
हार न
जब तक,
मन की
हार
नहीं होती है |

सोमवार, 6 सितंबर 2010

आत्मविश्वास



जो,
खोज पाते,
निज में ही,
गहरा,
अटल विश्वास

कब,
ढूंढ़ते फिरते,
कहाँ,
जग में,
वे क्षुद्र प्रकाश ?

चलते,
कहाँ,
कब देखकर,
परनिर्मित,
पदचिन्हों की
रेख ?

बढ़ते
सहज,
उस ओर,
जिधर,
मंजिल,
वे पाते
देख |

जहां
की बेड़ियाँ,
उनके कदम,
कब रोक
पाती है ?

प्रवल
विश्वास के
आगे
मुश्किलें
हार जाती है |

विषय,
होता
नहीं गंभीर,
के
जग बोले,
क्या सोचे है ?

बात जो
अर्थ
रखती है
के
स्वयं,
निज को
क्या सोचे है |

जो खुद,
निज के
प्रति
मन, कर्म,
वचन
से न्याय
करता है |

सफल
जीवन बने,
उसका
शुरू
अध्याय
करता है |

सोमवार, 19 जुलाई 2010

उम्मीद



पथिक
राह पर
चले,
अथक,
मंजिल की
चाह
जरुरी है |

ठोकर खा
जीवन
संभल सके,
उम्मीद
की
बाँह
जरुरी है ||

दुःख-सुख
जीवन के
चिर-स्तम्भ,
क्रमबार
इन्हें
तो
आना है |

सृजन,
नाश
फिर सृजन,
प्रकृत का
निश्चित
स्वांग
पुराना है ||

ज्यू,
गहन
निशा के,
अन्धकार को,
दिवस
दिवाकर
खाता है |

त्यु जटिल
निराशा
मिटती है,
उर जब,
आशा के
दीप
जलाता है |

जग निर्माता
का
अटल
कर्म,
हर पल
उम्मीद
जगाता है |

एक बुझे,
कई
रौशन
हों,
कुछ यूँ,
जग को
जगमाता है | |