रविवार, 2 मई 2010

रिश्तों के रखाव में: मित्र के प्रति कृतज्ञता



रिश्तों के
रखाव में
सहजता का
अभाव क्यों ?

नहीं
छोड़ा था
साथ
कर्ण ने,
मित्र का,
धर्मयुद्ध में |

अधर्म का
साथ,
भाई का
विरोध,
हस्तिनापुर की
राजसत्ता,
यहाँ तक की
कृष्ण का
उपदेशपूर्ण
सुझाब
सब
बौना
पर गया
भारी पड़ी
मित्र
के प्रति
कृतज्ञता

मगर
हमारी सोचों में
बसता
मित्रता
में भी
हिसाब किताब क्यों ?

रिश्तों के
रखाव में
सहजता का
अभाव क्यों ?

(नायेदा जी की प्रेरणा से)

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

साथ मेरा



साथ मेरा,
जब है हमदम,
फिर साँझ - सवेरा क्या है ?
पग की बाधाएँ,
हैं क्या फिर ?
दुर्दांत अँधेरा क्या है ?

तुमने,
निज हाथ दिया मुझको,
हर पल का साथ दिया मुझको,
दुःख - सुख तेरे,
अब मेरे हैं,
तुमने कृतार्थ किया मुझको |

एक सफ़र के,
हम हमसफ़र बने,
अब धुप मिले या छाँव घने,
पग,
जहा पड़े मेरे राहों में,
तेरे, संग-पदचिन्हों की छाप बने |

होकर निःशंक,
तुम साथ चलो,
दे हाथों में तुम हाथ चलो,
मिल,
दुर्गम रस्ते साधें हम,
हर बाधाओं के पार चलो |

रविवार, 25 अप्रैल 2010

बेपरवाह शहंशाह



जो आत्मतत्व को 
जान गए,
कब भव सागर में 
खोते है ?
परवाह न जग की
करते है,
बेपरवाह 
शहंशाह होते है |

जग,
जग के
पीछे भाग रहा,
वो निज में,
ध्यान लगाते है,
जग,
जीत-जीत कर
हार रहा,
वो,
हार के
जीते जाते है |

जग ने,
देखे सम्राट घणै,
जो समय चक्र से,
धूल बने,
ये बने,
तो फिर,
ना मिट पाए,
ख़म ठोक,
हिमपति तुल्य जमे |

बेपरवाह,
जहां से,
भले दिखें,
परवाह,
उसी की करते है,
जग,
निज में खोया रहता है,
वो जग में,
खोये रहते है |

बुधवार, 31 मार्च 2010

दुर्लभ सुख


जिस दुर्लभ सुख के,
पाश बंधा,
वह देव,
धरा पर आता है,
माँ की ममतामय गोद में,
बैठा शिशु,
सहज वह पाता है |

जब - जब,
कोई अंतर्मन से,
प्रेम के,
सर्वोच्य रूप सपनाता है,
कोटि-स्वरूपा,
तब - तब ही,
माँ का स्वरुप धर आता है |

माँ के,
आँचल की छावँ तले,
सारा ब्रम्हाण्ड समाता है,
शिशु अबोध,
पर प्रेम-बोध,
स्वर्गिक सुख,
से न अघाता है |

माँ भी,
निःशब्द शिशु अंतर्मन,
पढने में,
चुक न पाती है,
लगा ह्रदय,
उस परमप्रिय पर,
स्नेह - सुधा बरसाती है |

माँ - शिशु का,
अद्भुत मेल,
अति - मनभावन,
छवि बनता है,
बस एक झलक,
जो मिल जाये,
हर मन हर्षित हों जाता है |

रविवार, 28 फ़रवरी 2010

तन्हाई


सागर सी,
ये असीम जमी,
दिखती हर क्षण है,
पराई - पराई,
कहने को अथाह,
है प्रेम यहाँ ,
मिलती न मुझे,
उसकी परछाई |

लहरों सी उमंग,
लिए मुख हैं,
दिल दर्द है,
पैठ लिए गहराई,
चारो तरफ,
कोलाहल है,
यहाँ सिसकिया किसकी,
किसे दे सुनाई |

यू तो है,
भीड़ प्रचुर यहाँ,
मन मीत बिना,
छाई तन्हाई,
या रब,
इस बोझिल जीवन में,
मैं भोग रही,
तेरी निठुराई |

मेरे,
अव्यस्थित जीवन का,
व्यस्थित,
कोई छोर न देता दिखाई,
अब शेष बची,
कुछ यादें है,
हमसाथ मेरी,
बस है तन्हाई |

शनिवार, 23 जनवरी 2010

तुम हों, तो जग है |


सच कहता हूँ,
गर मानो तुम,
उद्दगार-हिय,
पहचानो तुम,
तेरी नेहामृत का आसक्त,
हुआ रग - रग है,
तुम हों, तो जग है |

यू तो,
फूलो का खिलना,
बहुत पुराना है,
मधु-ऋतू का आना,
भी जाना पहचाना है |
तुम आये,
समय वही,
पर सबकुछ बदल गया,
आज,
मैं देखू जिधर,
दिखे जगमग है |
तुम हों .... |

सुख-दुःख का,
साथ तभी से,
जब से समझ बढ़ी,
जीने के क्रम में,
भेट अगिनत स्वप्न चढ़ीं |
तुम मिले,
स्वप्न आखों में,
फिर है उमड़ गए,
आज,
भरा विश्वास,
बढे हर पग है |
तुम हों ..... |

था सुना,
प्रेम अनमोल,
जगत में होता,
अनभिज्ञ रहा,
था कहीं भाग्य छिप सोता |
सानिध्य तुम्हारा,
सोता भाग्य,
है जगा गया,
अब,
आनंद गगन में,
झूमे ह्रदय विहंग है |
तुम हों ...... |

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

कुछ सपने



नियति प्रधान,
जग जीवन के,
कुछ हिस्से,
कब पूरे हों पाते है ?
कुछ सपने,
अधूरे रह जाते है |

स्वप्न देखा,
अवधपति ने,
ज्येष्ठ सुत राजा बने,
प्रारब्ध के आगे,
मनुज सुख-स्वप्न,
कब जाते गणे ?
सुत चला वनवास,
वियोग,
क्षण प्राण हर जाते है,
कुछ सपने ..... |

स्वप्न देखा,
नवबधु सिया ने,
गृहस्थी सुखकारी बने,
भावी बनी दीवार,
मिली हर राह,
वह घेरी खड़े,
प्रथम मिला बनवास,
हरण,
कुछ ले गया विश्वास,
प्रिय-कर त्याग,
बचा सब कुछ बहा जाते है,
कुछ सपने ..... |