सोमवार, 1 नवंबर 2010

जीत- हार



नैन
मूंद लेने से,
ज्योति,
निज का
अस्थित्व
कहाँ खोती है ?

तन के
हारे,
हार न
जब तक,
मन की
हार
नहीं होती है |

सत् की
राह पे
हरिश्चंद्र ने
राज,
देश,
कुटुंब- तन
हारा

पग - पग
हारे,
किन्तु,
परन्तु,
वचन
पूर्ति का लक्ष्य
न वारा |

हर क्षण
होती
दीन दशा
संग
अक्षय कीर्ति
सबल होती है

तन के
हारे,
हार न
जब तक,
मन की
हार
नहीं होती है |

आदर्श
की
रक्षा हेतु,
राम,
अवध छोड़
वन ओर सिधारे

क्या दुर्भाग्य
नहीं था
जो वे
साथ
सिया का
वन में हारे ?

भुज बल
प्रिय का
साथ मिला
जो
राज धर्म
हेतु फिर वारे

हर क्षण
होते
भाग्य - ग्रहण
संग
उनकी जयघोष
प्रवल
होती है |

तन के
हारे,
हार न
जब तक,
मन की
हार
नहीं होती है |

सोमवार, 6 सितंबर 2010

आत्मविश्वास



जो,
खोज पाते,
निज में ही,
गहरा,
अटल विश्वास

कब,
ढूंढ़ते फिरते,
कहाँ,
जग में,
वे क्षुद्र प्रकाश ?

चलते,
कहाँ,
कब देखकर,
परनिर्मित,
पदचिन्हों की
रेख ?

बढ़ते
सहज,
उस ओर,
जिधर,
मंजिल,
वे पाते
देख |

जहां
की बेड़ियाँ,
उनके कदम,
कब रोक
पाती है ?

प्रवल
विश्वास के
आगे
मुश्किलें
हार जाती है |

विषय,
होता
नहीं गंभीर,
के
जग बोले,
क्या सोचे है ?

बात जो
अर्थ
रखती है
के
स्वयं,
निज को
क्या सोचे है |

जो खुद,
निज के
प्रति
मन, कर्म,
वचन
से न्याय
करता है |

सफल
जीवन बने,
उसका
शुरू
अध्याय
करता है |

सोमवार, 19 जुलाई 2010

उम्मीद



पथिक
राह पर
चले,
अथक,
मंजिल की
चाह
जरुरी है |

ठोकर खा
जीवन
संभल सके,
उम्मीद
की
बाँह
जरुरी है ||

दुःख-सुख
जीवन के
चिर-स्तम्भ,
क्रमबार
इन्हें
तो
आना है |

सृजन,
नाश
फिर सृजन,
प्रकृत का
निश्चित
स्वांग
पुराना है ||

ज्यू,
गहन
निशा के,
अन्धकार को,
दिवस
दिवाकर
खाता है |

त्यु जटिल
निराशा
मिटती है,
उर जब,
आशा के
दीप
जलाता है |

जग निर्माता
का
अटल
कर्म,
हर पल
उम्मीद
जगाता है |

एक बुझे,
कई
रौशन
हों,
कुछ यूँ,
जग को
जगमाता है | |

बुधवार, 16 जून 2010

रिश्तों के रखाव में: प्रेम के रिश्ते को समर्पित



रिश्तों के
रखाव में
सहजता का
अभाव क्यों ?

अगाध
प्रेम था
राधा-कृष्ण
में,
सांसारिक
बन्धनों
से परे |

नैसर्गिक
प्रेम
बलवती
होता
गया,
हर क्षण,
लेकिन
अबधित
रही
उनकी
सांसारिक
कर्तव्यों
के प्रति
निष्ठा |

परन्तु
आज
इस रास्ते पर,
परिलक्षित
होता
भटकाव क्यों ?

रिश्तों के
रखाव में
सहजता का
अभाव क्यों ?

(नायेदा जी की काव्य श्रंखला से प्रभावित)

गुरुवार, 3 जून 2010

रिश्तों के रखाव में : पति-पत्नी के रिश्ते को समर्पित



रिश्तों के
रखाव में
सहजता का
अभाव क्यों ?

अटूट
रहा
एक - दूजे
के प्रति
राम-सीता
का
प्रेम,
विश्वास,
समर्पण |

वक़्त की
आंधियाँ
हारती
गयी,
निखारती
गयी,
उनके
चिर-स्थाई
व्यवहार
को,
वनवास,
हरण,
त्याग
की
कसौटियों
पर
कस - कस
कर,

परन्तु
आज
इन रिश्तों में,
अल्प मुद्दों
पर ही,
उमड़ पड़ता
बिखराव क्यों ?

रिश्तों के
रखाव में
सहजता का
अभाव क्यों ?

(नायेदा जी की काव्य श्रंखला से प्रभावित)

रविवार, 2 मई 2010

रिश्तों के रखाव में: मित्र के प्रति कृतज्ञता



रिश्तों के
रखाव में
सहजता का
अभाव क्यों ?

नहीं
छोड़ा था
साथ
कर्ण ने,
मित्र का,
धर्मयुद्ध में |

अधर्म का
साथ,
भाई का
विरोध,
हस्तिनापुर की
राजसत्ता,
यहाँ तक की
कृष्ण का
उपदेशपूर्ण
सुझाब
सब
बौना
पर गया
भारी पड़ी
मित्र
के प्रति
कृतज्ञता

मगर
हमारी सोचों में
बसता
मित्रता
में भी
हिसाब किताब क्यों ?

रिश्तों के
रखाव में
सहजता का
अभाव क्यों ?

(नायेदा जी की प्रेरणा से)

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

साथ मेरा



साथ मेरा,
जब है हमदम,
फिर साँझ - सवेरा क्या है ?
पग की बाधाएँ,
हैं क्या फिर ?
दुर्दांत अँधेरा क्या है ?

तुमने,
निज हाथ दिया मुझको,
हर पल का साथ दिया मुझको,
दुःख - सुख तेरे,
अब मेरे हैं,
तुमने कृतार्थ किया मुझको |

एक सफ़र के,
हम हमसफ़र बने,
अब धुप मिले या छाँव घने,
पग,
जहा पड़े मेरे राहों में,
तेरे, संग-पदचिन्हों की छाप बने |

होकर निःशंक,
तुम साथ चलो,
दे हाथों में तुम हाथ चलो,
मिल,
दुर्गम रस्ते साधें हम,
हर बाधाओं के पार चलो |