रविवार, 20 जनवरी 2008

अभिलाषा

कुछ पाने की चाह, नया कुछ कर जाने की आशा
सुख-दुःख के इस धुप-छाव में, राह दिखाती अभिलाषा

वो दूर गगन के तारे, लगते है मुझको प्यारे
जी चाहे हाथ बढाकर, मुट्ठी में भर लू सारे

वो कल-कल बहती नदियाँ, निर्मल स्वच्छंद सी धारे
कुछ दूर बहू मैं उन संग, दिल सोचे बैठ किनारे

वो कलरव करते पंक्षी, भरते उन्मुक्त उडाने
क्यों उडू न मैं भी उन सम, ये सरहद क्यू हम माने

है चाह अनेको दिल में, कितनी दू परिभाषाये
हर रोज न जाने कितनी, बनती मिटती आशाये

4 टिप्‍पणियां:

  1. सकारात्मक सोच है प्रकृति-सी उन्मुक्त उजास लिए..

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  2. है चाह अनेको दिल में, कितनी दू परिभाषाये
    हर रोज न जाने कितनी, बनती मिटती आशाये
    bilkul sahi kaha aapne ek asha puri nahi hui dusri jagrit ho gai ab ise pura karne ke liye ek asha aur jivit ho gai.........

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  3. है चाह अनेको दिल में, कितनी दू परिभाषाये
    हर रोज न जाने कितनी, बनती मिटती आशाये ........
    पर इस बनने ,मिटने में ही पूरी होती अभिलाषाएं.
    बहुत उत्कृष्ट अभिलाषाओं की चाह.......

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  4. aapki is rachna ne sach me sabhi k man ko chua hoga...sabhi k man me kahin na kahin aisi hi abhilasha hoti hain.....bahut achchi rachna hai...

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