रविवार, 20 जनवरी 2008

पूरी हुई है रात अब

पूरी हुई है रात अब, है रौशनी लायी सवेरा
जाती जहा तक दृष्टि है, आदित्य का ही है बसेरा

छट चुके काले अँधेरे, मिट चुकी हर मुश्किले है
खुल गयी मंजिल की राहे, गम क्या अगर कुछ फासले है

जग गयी सोयी तम्मना, नींद अब पूरी हुई है
भाग्य की मिटती लकीरे, फिर से अब बनने लगी है

उत्साह है मन में उठी, परवाह शुलो की नहीं है
जीत होगी ही हमारी, बस कुछ पलों की वेबसी है

फिर मिली खोयी वो ताकत, फिर वही सम्मान पाया
धन्य है वो विश्व नायक, धन्य है नियति की माया

जग गए हम, फिर न सो जाये, सजग हमको है रहना
बीत जाये ना दिवस, फिर अब पड़े तम को न सहना

है अब हमें पुरजोर से, उत्थान की करनी तैयारी
पानी है हर वो चोटी, है जिससे जुडी मंजिल हमारी

2 टिप्‍पणियां:

  1. "शब्दों को तोड़ मरोड़ के ये कैसा रिश्ता बनाया,
    निर्जीव इन शब्दों में, जीवन का हिस्सा पाया" !!!!!
    बहुत स्पष्ट सोंच है आपकी .

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  2. काफी उत्साहवर्द्धक रचना है,
    नए सवेरे की,जागृति भरी जिजीविषा की अद्वितिये तस्वीर ........
    बहुत अच्छी...

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