अब ऊष्मा नही बाकी,
जीवन निःसार सा लगता है,
ढेला-कंकड़ भी पथ का, पहाड़ सा लगता है।
ना जीतने की जिद्द है,
ना हारने का गम है,
अब हर करम ही, थोथा व्यापार सा लगता है ।
पर चाहते है जिंदा,
है राख सुगबुगाती,
गर्माहटॊऺ पे अब भी, अधिकार सा लगता है।
इस आस को,
विश्वास में तब्दील कर जाना है,
जो जख्म है, कुछ पल में भर आना है ।
आलिंगन तो हो के रहेगा, गर प्रेम सच्चा है,
हर उलझनों के भव से, निश्चित हीं तर आना है।
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